बदल रही है भारत की तस्वीर

बदल रही है भारत की तस्वीर

हमारा गणतंत्र -हमारी राष्ट्रीय एकता-सम्प्रभुता-और अस्मिता का एक गौरवशाली दिन, पूर्ण स्वराज्य की अवधारणा के साकार प्रतिफलन का एक उज्जवल क्षण , एक नई सुबह-जागृति की, विश्वास की,एकता व गर्व-बोध से भरे गणतंत्र की, हाथों में तिरंगे झंडे उठाये हजारों बच्चों की एक सम्मिलित आवाज ” भारत माता की जय !, छब्बीस जनवरी अमर रहे !” युवा उमंग और जोश भरे स्वर ”आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की,इस मिट्टी से तिलक ,करो,ये धरती है बलिदान की ” बचपन में राष्ट्रीय उत्सव की यह तस्वीर मेरे सपनो में कैद है पर समय के बदलते परिदृश्य में यह तस्वीर धीरे धीरे बदल रही है,अपने प्रिय कवि नीरज जो पंक्तियाँ मुझे अत्यंत प्रिय थीं ””सागर चरण पखारे -गंगा शीश चढ़ाये नीर ,मेरे भारत की माटी है चन्दन और अबीर -तुझको या तेरे नदीश गिरी-वन को नमन करूँ,-किसको नमन करूँ मैं भारत किसको नमन करूँ पंक्तियों को कभी शान से गुनगुनाते हुए गर्व का अनुभव होता था पर अब उमंग उत्साह की हिलोरें पहले जैसी नहीं रही युवा मन में -देशभक्ति व देश के प्रति समर्पण बोध आज भी है,भारत माँ आज भी वंदनीय है ,परन्तु आज जन-मन की भावनाएं कहीं आहत हो गईं हैं।

गणतंत्र की स्थापना के साथ हमारे सपनों, आशाओं ,उम्मीदों को भी एक नया आसमान मिला था। उम्मीद थी की देश के विकास के लिए जो भी चुनौतियां सामने आयेंगी,हम उनका सामना कर लेंगे, उन पर विजय पा लेंगे,परन्तु वे सपने आज तक सच नहीं हुए। कितने शासक आये, और देश को नए सपनों की सौगात दी,पर वे अपने ,अपनों के विकास में ही लगे रहे, कभी भाषा के नाम पर तो कभी जाति ,वर्ग ,अस्मिता,वैचारिक मतभेदों, प्रतिस्पर्धात्मक संघर्षों में ही व्यस्त रहकर मुट्ठीभर उपलब्धियों के नाम पर जनता को मूर्ख बनाते रहे, मूर्ख समझते रहे. पर अब क्या?.. कब तक? ये सारे प्रश्न आज मुंह बाए सामने खड़े हैं।कोई विकल्प नजर नहीं आता। गणतंत्र की परिभाषा ही बदल गई हो जैसे अब गण अपने अलग अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है और तंत्र अपनी उपलब्धियों-नाकामियों की अलग परिभाषा गढ़ते हुए अपनी अलग अस्मिता और अस्तित्व के लिए संघर्ष-रत है,कहाँ खो गया है हमारा गणतंत्र ? वीर शहीदों के बलिदान की कथाएं मौन क्यों हैं ? क्या आजादी का सारा संघर्ष निरर्थक रहा ? प्रश्न-अनेक ,पर समाधान कहीं नहीं। पहले अंग्रेजों से लड़े ,अब खुद से लड़ रहें हैं, हमारे गणतंत्र की विश्व में एक अलग पहचान है।लोकतंत्र की स्थापना और संकल्पशक्ति की दृढ़ता के लिए हम प्रतिबद्ध हैं पर बदलती वैश्विक और राष्ट्रीय परिस्थितियों के दौरान बहुत कुछ बदला है, समाज की सोच और दिशा में आये बदलाव ने नैतिक मूल्यों और संस्कारों को हानि पहुंचाई है,सबसे बढ़कर महिलाओं के सम्मान के प्रति पुरे समाज के कदम भटकने लगे हैं। मुक्ति के द्वार की तलाश आज भी जारी है ,वह कभी मुक्त नहीं हो सकी रुढियों से ,परम्पराओं से ,सामाजिक विसंगतियों से ,अपनी ही कारा में कैद ,भारत की नारी आज भी अपने जीवन संघर्षों की लड़ाई लड़ रही है। सदियों की गुलामी से उत्पीडित -प्रताड़ित ,रुढियों की श्रृंखलाओं में बंदी उसकी आँखों ने एक सपना जरुर देखा था । जब देश आजाद होगा अपनी धरती , अपना आकाश ,अपने सामाजिक दायरों में वह भी सम्मानित होगी,उसके भी सपनों ,उम्मीदों को नए पंख मिलेंगे,पर उनका यह सपना कभी साकार नहीं हो पाया,अपने अधूरे सपनों के सच होने की उम्मीद लिए महिलाएं देश की स्वतंत्रता के संघर्ष में भी भागीदार बन जूझती रहीं सामाजिक ,राजनीतिक ,चुनौतियों से ,अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए – बलिवेदी पर चढ़ मृत्यु को भी गले लगाया पर हाय भाग्य ! देश को आजादी तो मिली पर ”राजनीतिक आजादी” ,अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार भी मिला ,पर अधूरा ,नियमो -कानूनों में लिपटा हुआ। हजारों लाखों सपनो के बीच नारी मुक्ति का सपना भी सच होने की आशा जागी थी ,शांति घोष ,दुर्गा भाभी ,अजीजन बाई , इंदिरा ,कमला नेहरु ,जैसे अनगिनत नाम जिनमें शामिल थें पर नारी मुक्ति के सपने कभी साकार नहीं हो पाए , उनकी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया , वे पहले भी सामाजिक , वर्जनाओं के भंवर में कैद थीं ,आज भी हैं , कभी महिलाओं ने सोचा था की जब उन्हें आजादी मिलेंगी उनकी भी आवाज सुनी जाएगीं ,वे भी विकास की मुख्य धारा में शामिल होकर अपनी मंजिल प्राप्त कर पाएंगीं पर आज वे अपने ही देश में सुरक्षित नहीं हैं , पहले भी घर व समाज की चार दीवारों में आकुल -व्याकुल छटपटाती थीं और आज भी स्वतंत्रता के 66 वर्षों के बाद भी वे चार दीवारों में बंदी रहने को विवश हैं क्योंकि बाहर की दुनियां उनके लिए निरापद नहीं है , यह कैसी बिडम्बना है ! कैसी स्वतंत्रता है ! जो मिल कर भी कभी फलीभूत नहीं हो सकी।

कितने ही बलिदानों , संघर्षों ,से प्राप्त आजादी को हमने कुछ सत्ता लोलुपों के हाथ का खिलौना बना दिया ,वे देश के भविष्य से खेलते रहे -संविधानो -कानूनों ,न्याय और प्रगति के नाम पर एक प्रभुत्व संपन्न गणराज्य के भाग्य का फैसला सुनाते रहे ,परदे के पीछे से घिनौना खेल खेलते रहे पूरा देश देखता रह गया ..आजादी मिले वर्षों बीत गए समय बदला युग बदले कामना तो यही की थी मनुष्यता के पक्षधरों से उनकी सोच .विवेक ,बुद्धि का विकास होगा मानवता के नये आयाम स्थापित होंगे ..शिक्षा होगी तो अन्तश्चेतना का भी उत्कर्ष होगा …पर कितना दुःख होता है ये पंक्तियाँ लिखते हुए की परिवर्तनों के दौर से गुजर कर भी शिक्षित होते हुए भी हमने क्रूरता -संवेदना और नृशंसता की सारी वर्जनाएं सीमाएं तोड़ दी हैं ।हम आवाज उठातें रहें ,जुल्म के खिलाफ नारी अस्मिता के लिए पर कहाँ खो जाती हैं वे आवाजें ?..सत्ता बहरी है या समाज ? पहले विदेशियों ,अंग्रेजों से संघर्ष था पर आज अपनों से हैं, अपनों से अपनों का यह युद्ध ज्यादा कठिन है लेकिन हम हताश नहीं हैं । उम्मीद की किरणें अभी धूमिल नहीं हुई हैं क्योंकि हम संघर्ष करना जानते हैं ,देश पर बलिदान होने वाले शहीदों की कुर्बानियां व्यर्थ नहीं जाएँगी,अपनी सोच और विचारधारा में क्रांतिकारी परिवर्त्तन लाना होगा,अपने गणतंत्र की आत्मा को समझना होगा, जो हमारे लोकतंत्र के हित के लिए है, सामाजिक विकास और उन्नति के लिए हैं , उसे अनमोल थाती समझ कर उसकी रक्षा करनी होगी,केवल ऊँचे ऊँचे भवनों पर तिरंगा फहरा देना ,मंचों से प्रभावशाली भाषण दे लेना,ही गणतंत्र का स्वागत नहीं होता , हमारा गणतंत्र तो संवरता है हमारी निष्ठां,एकता,कर्तव्य परायणता और देश के लिए समर्पित हो जाने की आंतरिक भावना से देश हित, ”’ स्व-हित” से ऊपर हो , हम सब अपना कर्तव्य पालनकर, अनुशासित बनें , तभी हम राह भटके नेताओं ,अधिकारियों को ‘सही राह दिखा पायेंगे.हिंसा मत करें, हताशा में ,आत्मदाह। आत्महत्या जैसे कदम न उठायें बल्कि सुलझी हुई सोच के साथ एक नया समाज बनाएं जो हमें सही रास्ता दिखा सके।अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनें ,संघर्ष की इस लड़ाई में हम सब साथ हैं। हमारी एक ही आवाज हो देश अमर रहे , हमारा गणतंत्र अमर रहे ,हमारा लोकतंत्र शत्तिशाली-स्थायी और यशस्वी हो।देश जाग रहा है ,परिस्थितियाँ करवट बदल रही हैं ,एक बार पुनः लोकतंत्र की प्रतिष्ठा दांव पर है, चुनाव कि इस वैतरणी को सत्य निष्ठां के शेयर पार करने वाला जन-नेता ही लोकतंत्र व देश का भविष्य गढ़ेगा। राजनीतिक दांव-पेंच,छल-छद्म ,आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच एक सही नेतृत्व को चुन पाना कठिन है,पर इस बार देश की आशान्वित दृष्टि युवा मतदाताओं की ओर है ,इस बार हम कुछ ऐसा करें कि हर बार चुनावों के बाद ,खुद के छले जाने का अहसास ही न रहे । हम सत्य की लड़ाई लड़ें। सत्य और ईमानदारी की राह कठिन व कंटकित जरुर है पर स्थायी,समतल,और उद्देश्यपूर्ण है,चाहे हम किसी भी दल से जुड़े हों,इस बार न हम किसी पूर्वाग्रह का शिकार होंगे । न भ्रम में रहेंगे और न लोभ में सही निर्णय लें ।यह जीत हमारी अपनी है,बहुत हो चुका ,अब तो जागें ।सत्य कभी शक्ति से पराजित नहीं होता । यह सत्य ध्रुव है,”सत्य हारा नहीं आजतक शक्ति से नाश,संहार ,संग्राम के सामने ”।

”सिर झुकाना पड़ेगा परशुराम को,शांति के देवता राम के सामने ”।

पद्मा मिश्रा
साहित्यकार
जमशेदपुर, झारखंड

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