प्रेमपत्र सन बहत्तर का
किशन
आज बहुत लंबे समय के बाद तुम दिखे।समय को दिनों, महिनों और वर्षों में बाँटने की शक्ति कहाँ थी मुझमें।हर एक पल तो युग की तरह बीता था। कितने युग बीत गए इसका भान ही कहाँ रहा मुझे।मन तो सदा तुम्हें खोजता रहता था। आज तुम पर दृष्टि पड़ी तो लौट कर ही नहीं आई वहीं थम कर रह गई।शायद तुमने भी देखा था।हाँ,देखा तो था किन्तु कितने अपरिचित भाव से।कितना
बेगानापन था तुम्हारी नज़रों में।बिंध कर रह गई थी मैं।तुम हाँ , तुम्हीं तो थे।इतनी सारी भीड़ का केन्द्र तुम ही बन कर रह गए थे। एक ही क्षण में गुजरा हुआ समय पुस्तक के पन्नों की तरह आँखों के सामने उलटता चला गया ।
चाहा तो बहुत झकझोर दूं तुम्हें ।याद दिलादूं सब।कदमों में न जाने कहाँ की जड़ता आ गई कि हिल भी न सकी,स्थिर बनी रह गई। अब तक सिर्फ तुम्हारे न मिल पाने का ही दुख था।आज जब तुम्हारी आँखों में अपने लिए यह उपेक्षा और अनमनापन देखा तो।कहाँ तक कहूँ।जाने कैसे सह पाई मैं वह सब।दोष केवल तुम्हारा ही नहीं मेरा भी है।क्यों बंध कर रह गई मैं उन पलों से जिन्हें तुम्हारे साथ बिताया था। कुछ क्षणों की नींव पर उम्मीदों का महल खड़े कर लेना पागलपन नहीं है तो और क्या है।क्या करती मैं ?लोहा थी मैं तो, तुम्हारी दृष्टि पड़ी और तो सोना बन गई। अब वह पारस कहाँ से लाऊँ जो मुझे कुछ और बना सके।सोने की परत बन कर तो तुम्हीं छा गए।अब और कौन सी परत चढ़ाऊँ।
लगता है कल ही की बात है जब हमारा तुम्हारा सामना हुआ था।केन्द्रीय पुस्तकालय में उस दिन गलती से तुम्हारी पुस्तक मुझे मिल गई थी और मेरी तुम्हारे पास पहुँच गई थी।हम दोनों एक साथ अपनी पुस्तकें लेने पहुँचे थे।तुम्हारी संजीदगी मुझे भा गई थी। अपनी किताब को पा मैं खुश थी। तुमने धीरे से धन्यवाद कहा और चलते बने।फिर अक्सर हम मिलने लगे थे कभी बस
स्टाप पर,कभी रास्ते में तो कभी-कभी उसी पुस्तकालय में।धीरे-धीरे हमारे बीच का संकोच कम होने लगा।बातों का सिलसिला आगे बढ़ता गया ।मैं बी.ए के प्रथम वर्ष में
थी।प्रायवेट रूप से परीक्षा दे रही थी। सुबह शाम ट्यूशन लिया करती थी। तुम काॅलेज में बी.काॅम फायनल में थे।यह सब तुम्ही ने बताया था।
किताबें पढ़ने का शौक तुम्हें भी था और मुझे भी ।हमदोनों अक्सर पढ़ी हुई किताबों पर चर्चा किया करते थे।छुट्टी के दिन किसी पार्क में चले जाया करते थे।वहीं बैठ कर देर तक उन पर बातें किया करते थे।जब कभी तुम मूड में होते थे अपने बारे में बहुत सी बातें बताते थे। तुम्हीं ने बताया था कि बचपन में पिता के देहान्त के बाद तुम्हारी माँ ने कितनी मुश्किलों से पाला था।बहुत प्यार करते थे तुम अपनी माँ को।माँ चाहती थीं कि तुम बहुत तरक्की करो।माँ के सपने ही तुम्हारे सपने थे। तुम किसी भी कीमत पर उन्हें पूरा करना चाहते थे।उन सब बातों को
बताते समय अक्सर कहीं खो जाया करते थे। तुमने कभी मुझे अपने घर आने को नहीं कहा ।मैंने भी तुम्हें कभी अपने घर नहीं बुलाया।हम हमेशा बाहर ही मिला करते थे।
तुम्हें सुनना मुझे अच्छा लगता था।तुम बोलते ही कुछ ऐसा थे। गंभीर और संतुलित आवाज थी तुम्हारी। सुनने वाले सुनते ही रह जाते थे। सहज भाव से सबको आकर्षित कर लेते थे तुम। मुझे तुम्हारी विशाल झील सी गहरी आँखें बहुत पसंद थीं।मन तो करता था सदा के लिए उनमें खो जाऊँ।पर तुम न जाने कहाँ खोए रहते थे।न जाने क्या सोचते रहते थे हमेशा।अक्सर बातें करते करते न जाने कहाँ गुम हो जाया करते थे।अक्सर याद दिलाना पड़ता था तुम्हेंं। पता नहीं तुम्हें मेरी कोई बात अच्छी लगती थी या नहीं ।कभी तुमने बताया नहीं और
कभी मैंने जानना भी नहीं चाहा।हाँ, तुम न जाने कब और कैसे ख्वाबों और खयालों में छा गए पता ही नहीं चला।
फिल्में देखना तुम्हें बहुत पसंद था।अकेले ही फिल्में देखना पसंद करते थे। जब भी कोई फिल्म देख कर आते बहुत ही उत्साह और विस्तार के साथ मुझ उसके बारे में बताया करते थे। मुझे तो लगता ही नहीं था कि वह फिल्म मैंने नहीं देखी है। घर,पढ़ाई और ट्यूशन के चक्कर में मेरा तो जाना ही नहीं हो पाता था पर उसकी कमी मुझे महसूस ही नहीं होती थी।दिलीप कुमार तुम्हारे पसंदीदा हीरो थे। एक भी फिल्म नहीं छोड़ते थे तुम दिलीप कुमार की। नया दौर, मुगलेआजम, पैगाम आदि फिल्में तुम्हें बहुत पसंद थीं। लीडर फिल्म तो तुम्हें बहुत ही पसन्द थी। कई बार देखी थी तुमने यह फिल्म। वोट की राजनीति पर बनी इस फिल्म की पटकथा भी दिलीप कुमार ने ही लिखी थी यह सब तुम्हीं बताया करते थे।मैं भी बहुत रुचि लेकर यह सब सुना करती थी। तुम्हें सुनना अच्छा जो लगता था।
फिल्मों के बाद तुम्हें जो सबसे अधिक पसंद था वह था क्रिकेट। अजित वाडेकर तुम्हारा प्रिय क्रिकेटर था।अजित
वाडेकर की कप्तानी तुम्हें बहुत पसंद थी। तारीफ करते करते थकते नहीं थे तुम ।वेस्टइंडीज ओर इंगलैंड के विरुद्ध शानदार जीत ने अजित वाडेकर को तुम्हारा हीरो बना दिया था। वैसे मुझे क्रिकेट में बहुत ज्यादा रुचि नहीं थी पर तुम्हारी बातों से मेरा सामान्य ज्ञान तो थोड़ा बढ़ ही जाता था।
कभी-कभी तुम ज्यादा ही मूड में होते थे तो कहते थे-’चलो चलकर भुट्टा खाते हैं।’ तुम्हें भुट्टा बहुत पसंद था। बारिश के मौसम में गरमागरम भुट्टे पर नमक निम्बू छिड़ कर खाने का मजा ही अलग था। और उसके बाद अदरक वाली चाय। सच क्या दिन थे वो भी ।
आखिर क्यों लिख रही हूँ मैं यह सब। तुम तक तो यह पहुँचेगा नहीं ।अगर पहुँच भी गया तो कोई अन्तर आने वाला नहीं है।हो सकता है तुम नज़र उठा कर देखो भी न।समय ही नहीं है तुम्हारे पास। शायद समय ही बदल गया है।एक गाने की पंक्तियां बार बार होंठों तक आकर रुक रही हैं…….
तुम न जाने किस जहाँ में खो गए
हम भरी दुनिया में तनहा हो गए.,,,
एक दिन तुम्हींने बातों बातों में बताया था कि तुम्हारे काॅलेज में छात्रसंघ के चुनाव होने वाले हैं अगले महिने। चयन प्रक्रिया चल रही है। तुम्हें भी चुने जाने की उम्मीद है। सुनकर कितनी खुशी हुई थी मुझे ।कुछ ही दिनों के पश्चात तुमने बताया था कि तुम्हें चुन लिया गया है।तुम्हारी खुशी का तो ठिकाना ही नहीं था। बहुत देर तक काॅलेज
के बारे में बातें करते रहे थे उस दिन।अब तुम अक्सर दोस्तों से घिरे नजर आने लगे। तुम्हारी बातों मे भी चुनाव की चर्चा अधिक रहती। दिन पर दिन तुम्हारा काम बढ़ता जा रहा था। इन दिनों मैं भी कुछ वयस्त अधिक हो गई थी। सुबह एक प्राइमरी स्कूल मे जाॅब मिल गया था। शाम को कोचिंग क्लास चलती थी। बाबा वैसे ही साँस की तकलीफ़ को लेकर परेशान रहते थे।उन्हें भी देखना पड़ता था।हाँ, घर का काम माँ संभाल लेती थीं बस यही आराम था। समय कहाँ बीत रहा था पता ही नहीं चल रहा था।तुम भी केवल छुट्टी के दिन ही मिल पाते थे।
उस बार तुम मिले तो बहुत रिलेक्स लग रहे थे।बहुत ही विस्तारपूर्वक तुमने मुझे बताया कि अब समय बहुत कम है।बहुत काम बाकी है।जोर शोर से प्रचार में जुटना होगा।बहुत तैयारी करनी होगी । पोस्टर बनाने हैं वह भी हाथ से।बनेबनाए पोस्टर नहीं चलेंगे।काॅलेज केम्पस में ही रेलियाँ निकालनी होंगी।भाषण तैयार करने होंगे। नियमों का पूरी कठोरता के साथ पालन करना होगा।बताते हुए तुम्हारी आँखों में चमक सी आगई थी।अपनी जीत के प्रति आश्वस्त नजर आ रहे थे तुम । मैने भी पूरी तरह से सहायता का भरोसा दिलाया था।बात करते करते फिर कहीं खो से गए थे तुम । तुम्हें देख कर लगा भी कि तुम कुछ कहना चाह रहे हो पर कह नहीं पा रहे हो। किसी उधेड़बुन में डूबे से लगे तुम मुझे ।मैंने कोशिश भी कि पर तुम खामोश ही रहे।हठात जैसे कुछ याद आ गया हो- चलता हूँ कहकर चल दिए।पीछे मुड़कर देखा भी नहीं एकबार।काश! लौट आते तुम।काश! रोक पाती मैं तुम्हें ….
खूब मेहनत की थी तुमने।और फल भी अच्छा मिला तुम्हें ।बहुत अधिक वोटों से शानदार जीत हासिल की तुमने। खूब खुश थे तुम ।मेरे लिए भी मिठाई का डिब्बा लेकर आए थे और बोले थे- माँ और बाबा को भी खिलाना ।अब तुम्हारी जिम्मेदारी और काम दोनों बढ़
गए थे।पढ़ाई तो थी ही। तुम्हारी गिनती अच्छे विद्यार्थियों में होती थी।अपना दबदबा भी तो कायम रखना ही था। अब तुम बहुत व्यस्त रहने लगे थे।कभी किसी मीटिंग मे तो कभी किसी सभा में। छुट्टी के दिन भी कम ही मिल
पाते थे। आते भी तो हमेशा जल्दी में ही रहते थे।हवाई घोड़े पर सवार ।
बी काॅम फायनल अच्छे डिवीजन से पास कर लिया था तुमने। अब यूनिवर्सिटी में दाखिला लेने का सोच रहे थे।मैंने भी फर्स्ट ईयर पास कर लिया था।जीवन यथावत बीत रहा ।तुम्हारा दायरा धीरे-धीरे बढ़ने लगा ।तुम्हारे सपनों को जैसे पंख लग गए थे।सपनों को पूरा करने की जद्दोजहद में सबकुछ जैसे पीछे छूटता जा रहा था तुम्हारी दुनिया इतनी विशाल हो गई थी कि अब उसमें मेरे लिए भी कोई जगह नहीं थी।शायद तुम्हारे मन में भी
नहीं …….
दूर बहुत दूर होते जा रहे थे तुम और मैं तुम्हें रोक भी नहीं पा रही थी। पहले मैं कुछ लिखा करती थी तो तुम कहते थे-कनु ,तुम लिखती नहीं आँसू पीती हो, खारे
खारे आँसू । आज भी मैं आँसू पी रही हूँ,गिरने नहीं दूंगी।कहीं उनके गिरने से पत्र के अक्षर धुल न जाएं…..मेरे मन-वृंदावन को छोड़ कर कर्म क्षेत्र में जाने का जो फेसला तुमने लिया है जानती हूँ वह अडिग है।जाओ किशन……..।सफलता के महाद्वार तुम्हारी प्रतिक्षा कर रहे हैं….
सदा तुम्हारी
कनु
आनंद बाला शर्मा
साहित्यकार
जमशेदपुर, झारखंड