देह से इतर स्त्री ……….!!

देह से इतर स्त्री ……….!!

एंगेल्स ने कहा है कि मातृसत्ता से पितृसत्तात्मक समाज का अवतरण वास्तव में स्त्री जाति की सबसे बड़ी हार है। मानविकीविज्ञान शास्त्र (Anthropology) के विचारक ‘लेविस्त्रास’ ने आदिम समाज का अध्ययन करने के बाद कहा-‘सत्ता चाहे सार्वजनिक हो या सामाजिक, वह हमेशा पुरुष के हाथ में रही है। स्त्री हमेशा अलगाव में रही। उसे यदि पुरुष ने देवी का रूप दिया, तो उसे इतना ऊँचा उठा दिया, निरपेक्ष रूप से इतनी पूज्या बना दिया कि मानव जीवन उसे प्राप्त ही नहीं हो सका।‘ जिस देश में स्त्री को स्वयं ही शक्ति स्वरुप माना और जाना गया है उसे शक्ति कौन देगा, और आदिशक्ति, काली, दुर्गा के रूप में महिमा मंडित किया गया है वहां पर महिला सशक्तिकरण की मांग कुछ विचित्र ही लगती है।

महिला सशक्तिकरण का मतलब महिला को सशक्त करना नहीं हैं। महिला सशक्तिकरण या वूमन एम्पोवेर्मेंट का मतलब फेमिनिस्म भी नहीं हैं । महिला सशक्तिकरण या वूमन एम्पोवेर्मेंट का मतलब पुरूष की नक़ल करना भी नहीं हैं, ये सब महज लोगो के दिमाग बसी भ्रान्तियाँ हैं। महिला सशक्तिकरण या वूमन एम्पोवेर्मेंट का बहुत सीधा अर्थ हैं कि महिला और पुरूष इस दुनिया मे बराबर हैं और ये बराबरी उन्हे प्रकृति से मिली है। महिला सशक्तिकरण या वूमन एम्पोवेर्मेंट के तहत कोई भी महिला किसी भी पुरूष से कुछ नहीं चाहती और ना समाज से कुछ चाहती हैं क्योकि वह अस्वीकार करती हैं कि पुरूष उसका “मालिक” हैं। ये कोई चुनौती नहीं हैं, और ये कोई सत्ता की उथल पुथल भी नहीं हैं ये “एक जाग्रति हैं” कि महिला और पुरूष दोनो इंसान हैं और दोनों समान अधिकार रखते हैं समाज मे। बहुत से लोग “सशक्तिकरण” से ये समझते हैं कि महिला को कमजोर से शक्तिशाली बनना हैं, नहीं ये विचार धारा ही ग़लत हैं। “सशक्तिकरण” का अर्थ हैं कि जो हमारा मूलभूत अधिकार हैं यानी सामाजिक व्यवस्था मे बराबरी की हिस्सेदारी वह हमे मिलना चाहिये। “महिला सशक्तिकरण” पुरूष को उसके आसन से हिलाने की कोई पहल नहीं हैं अपितु “महिला सशक्तिकरण” सोच हैं कि हम तो बराबर ही हैं सो हमे पुरुषों से कुछ इसलिये नहीं चाहिये कि हम महिला हैं।

आज की नारी और भी अधिक शोषित,पीडित है। बदला है तो बस शोषण करने का स्वरुप। आज नारी जिस स्थिति में है उसे उस स्थिति तक पहुँचाया किसने? मैने, आपने और इस समाज ने क्योंकि नारी को नारी हमने बनाया। अबला, निरीह हमने बनाया है । जब एक बच्चा जन्म लेता है तब उसे खुद पता नही होता कि वह क्या है। अबला नारी का रुप ले लेता है क्यों ? आखिर क्यों जबाब नही क्योंकि औरत को औरत बनाने वाली भी औरत ही होती है। वो औरत जो आधी आबादी का हिस्सा है जो आदिम युग से अपने त्याग बलिदान के कारण वन्दनीय रही है। आज की नारी जो पढ़ी लिखी, सुसज्जित है। आँखिर क्यों शिकंजो से आजाद नही हो पा रही है़ं।

सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में महिलाओं की पहचान के मानक भी बदले हैं। आज महिलाओं की पहचान का जो मानक प्रचलन में है वह दो सौ साल पहले नहीं था। अत: महिलाओं के बारे में बात करते समय ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य का होना प्राथमिक शर्त्त है। ऐतिहासिक नजरिए के बिना औरत को समझना मुश्किल है। महिलाएं सिर्फ सामयिक ही नहीं है। वह सिर्फ अतीत भी नहीं है। उसे काल में बांधना सही नहीं होगा। उसकी पहचान को ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए।

महिलाओं की धारणा को लेकर साहित्यकारों और राजनीतिज्ञों में पुरूष-संदर्भ अभी भी वर्चस्व बनाए हुए है। औरत अभी भी साहित्य में बेटी, बहन, बीबी, बहू, माँ, दादी, चाची, फूफी, मामी आदि रूपों में ही आ रही है। महिलाओं को हमारे साहित्यकार परिवार के रिश्ते के बिना देख नहीं पाते, पुरुष-संदर्भ के बिना देख नहीं पाते।

स्त्री के सामाजिक यथार्थ को रूपायित करने के लिए स्त्री-पुरूष की सही इमेज या अवस्था की सटीक समझ परमावश्यक है। औरत की सही समझ के अभाव में समूचा विवेचन अमूर्त्त हो जाता है, प्रभावहीन हो जाता है, औरत अमूर्त्त या अदृश्य हो जाती है। औरत की अदृश्य स्थिति के कारण विकृत विश्लेषण जन्म लेता है, और जो निष्कर्ष निकाले जाते हैं वे अप्रामाणिक और अधूरे होते हैं। यह स्थिति आज भी हमारे साहित्य में मौजूद है।

समाज में स्त्री का जो स्थान है उसके प्रति सवाल उठ खड़े हुए हैं। महिलाओं की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक अवस्था संतोषजनक नहीं है। महिलाओं के चर्चा में आने या बने रहने का अर्थ है कि औरत के मसले अभी सुलझ नहीं पाए हैं। महिलाओं के मसले क्यों उलझते हैं क्योंकि आम लोगों में उसकी वास्तविकता का ज्ञान नहीं होता। औरत के प्रति पूर्वाग्रह काम करते रहते हैं।

महादेवी वर्मा ने आदिम युग से लेकर सभ्यता के विकास तक भारतीय समाज में स्त्री की दयनीय दशा का वर्णन किया है। उनकी दृष्टि में इसका कारण स्त्री और पुरूष के अधिकारों की विचित्र विषमता है। वे कहती है, “पुरूष ने उसके अधिकार अपने सुख की तुला पर तोले, उसकी विशेषता पर नहीं, अतः समाज की सब व्यवस्थाओं में उसके और पुरूष के अधिकारों में एक विचित्र विषमता मिलती है।… एक ओर सामाजिक व्यवस्थाओं ने स्त्री को अधिकार देने में पुरूष की सुविधा का विशेष ध्यान रखा है, दूसरी ओर उसकी आर्थिक स्थिति भी परावलम्बन से रहित नहीं रही। वे स्पष्ट रूप से कहती हैं कि आर्थिक रूप से जो स्थिति स्त्री की प्राचीन समाज में थी, उसमें अब तक परिवर्तन नहीं हो सका है। “भारतीय नारी का मुख्य दोष महादेवी जी ने यह बतलाया है कि उसमें व्यक्तित्व का अभाव है। उसे न अपने स्थान का ज्ञान है, न कर्त्तव्य का। जो लोग उसकी सहायता करना चाहते हैं, वह उन्हीं का विरोध करती है।

जब नारी ही नारी को न तो समझ पायी है आज तक, न सम्मान दे पायी तो यह प्रश्न तो पुरुषो के पाले में डालना अभी जरा जल्दबाजी होगी। सबसे पहले नारी खुद अपना सम्मान करना सिखे और अपने को खुश रखना जाने तभी आपका उचित मूल्यांकन होगा। स्त्रियों के तेज और ओज को स्त्रियोचित चेतना की कसौटी पर ही देखने की आवश्यकता है, तभी उसकी पहचान को नया आयाम मिलेगा तब ही महिला-दिवस की सार्थकता पूर्ण होगी।

मेरी एक छोटी सी पहल / आग्रह हैं जो भी व्यक्ति महिलाओं के प्रति फेसबुक, ट्वीटर, व्हाट्स-एप और ब्लॉग पर असंवेदनशील शब्दों को लिखते हैं उनको उनकी भाषा और मानसिक भ्रांतियों से अवगत कराया जाऐ जिसे पढ़ कर महिलायें किस मानसिक यंत्रणा से गुजरती होंगी। यह पहल हमें सर्वप्रथम खुद से शुरू करनी होगी तब ही महिला-दिवस की सार्थकता पूर्ण होगी।

डॉ कृष्ण नीरज 
वरिष्ठ साहित्यकार
पटना, बिहार

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