तुम आओगे या मैं जाऊं

तुम आओगे या मैं जाऊं

तुम आओगे या
मैं आ जाऊं

कि, अब तो पतझड़ के बाद की
नंगी शाखाओं पर
नए पत्ते आ चुके हैं और
प्रकृति भी अपने
पुराने लिबास उतार कर
नए आवरण में इठला रही है
दिन लंबे और उदासी भरे हो गए हैं
बहुत सारी उदासी
इकट्ठी हो गई है मेरे आस-पास
डरने लगी हूं उदासी के इन थपेड़ों से

आओ कि,अब तो
आषाढ़ की क्षणिक दशा में
मेरा मन पिघल कर तार-तार
हुआ जा रहा है
बमुश्किल कोई कविता
पूरी नहीं होती है इन दिनों
शब्द जिद्दी हो गए हैं
सुनते ही नहीं
अपने मन का ही लिखते हैं
और
भावों की आंधी तो
कब पूरे वेग से
आकर गुजर जाती है
पता ही नहीं चलता

आओ कि,मिलकर नापेंगे
मन की उन
संकरी गलियों को जहाँ
कितनी ही अबोध, अनकही और अनसुनी भावनाओं को
आज भी इंतजार है, तुम्हारा

सुनो!
पहली बरसात शुरू होने के
पहले आना कि,
डूबी हुई ओस और
टिमटिमाती हुई रोशनी में
तुम्हारे तांबई चेहरे को देखना
मेरा सबसे पसंदीदा शगल है
देखना
इस बार न आंखें सहमेंगे
न हिलेंगे होंठ
बोले अबोले सब सवालों को
बिखरा कर खोजेंगे
प्रेम की दबी-पड़ी संभावनाओं को
चाय की चुस्की संग
घोल-कर पी जाएंगे
सारी उदासी, बेबसी और घुटन को

हर हताशा के बाद
भीतर मेरे एक नई खिड़की
खुल जाती है
निर्बाध आकाश
मुक्ति के लिए उकसाता है मुझे
तब मैं उन खिड़कियों को बंद कर
तुम्हारे यादों की उस कोट में
खुद को बंद कर लेती हूँ
जिसमें मेरी कल्पनाओं के सतरंगी इंद्रधनुष आज भी दिखाई देते हैं

जानती हूँ,
असंभवप्राय है
फिर भी हो सके तो आ जाना.

नंदा पाण्डेय
साहित्यकार
रांची, झारखंड

0