डॉ. अंबेडकर
अंबेडकर एवं भारतीय संसदीय प्रणाली पर उनके विचार !!
अंबेडकर ने कहा था कि भक्ति या नायक पूजा शर्तिया तौर पर पतन और उसके संभावित तानाशाही की ओर ही ले जाती है। भारत में भक्त होना आसान है समझदार होना मुश्किल है। क्या इस देश में भूख, बेरोजगारी, महंगाई, सामाजिक असामनता जैसे ज्वलंत मुद्दों की कमी हो गयी है कि आज देश में एक व्यक्ति के नाम को लेकर इतना बड़ा विवाद छिड़ जाता है।
कभी हमें कांग्रेस अपने मुद्दों के आधार पर बेवकूफ बनाती है तो कभी भाजपा क्षद्म हिन्दुवाद/राष्ट्रवाद के नाम पर, राज्य स्तरीय राजनीतिक दलों की तो बात भी करनी बेवकूफी होगी। बेवकूफ हमलोग हैं जो सबकुछ जानते-समझते हुए भी उनके सोची-समझी चालबाजियों के शिकार बनते हैं। राजनीतिज्ञों की बातों पर जनता को ध्यान भी नहीं देना चाहिए, हमारी इन्ही कमजोरियों की वजह से राजनीतिज्ञ असली मुद्दों से हमें भटकाने में सफल हो जाते हैं।
क्या किसी भी राजनीतिक दलों ने कभी जनता को यह बताने की कोशिश किया है कि अंबेडकर का संसदीय प्रणाली के प्रति क्या विचार रहा हैं। अंबेडकर की साफ धारणा थी कि संसदीय जनतंत्र जनता की मूल समस्याओं का समाधान नहीं कर सकता।
सन् 1943 में इंडियन फेडरेशन के कार्यकर्ताओं के एक शिविर में भाषण देते हुए अंबेडकर ने कहा “हर देश में संसदीय लोकतंत्र के प्रति बहुत असंतोष है। भारत में इस प्रश्न पर विचार करना अत्यंत आवश्यक है। भारत संसदीय लोकतंत्र प्राप्त करने के लिए बातचीत कर रहा है। इस बात की बहुत जरूरत है कि कोई यथेष्ट साहस के साथ भारतवासियों से कहे-संसदीय लोकतंत्र से सावधान। यह उतना बढ़िया उत्पाद नहीं है जितना दिखाई देता था।”
इसी भाषण में आगे कहा ‘संसदीय लोकतंत्र कभी जनता का सरकार नहीं रहा, न जनता के द्वारा चलाई जाने वाला सरकार रहा। कभी ऐसी भी सरकार नहीं रहा जो जनता के लिए हो।’
अंबेडकर ने संसदीय लोकतंत्र की व्याख्या करते हुए लिखा ” संसदीय लोकतंत्र शासन का ऐसा रूप है जिसमें जनता का काम अपने मालिकों के लिए वोट देना और उन्हें हुकूमत करने के लिए छोड़ देना होता है।”
अंबेडकर ने लोकतंत्र को मजदूरवर्ग के नजरिए से देखा और उस पर अमल करने पर भी जोर दिया।
अंबेडकर की धारणा थी कि ‘लोकप्रिय हुकूमत के तामझाम के बावजूद संसदीय लोकतंत्र वास्तव में आनुवंशिक शासकवर्ग द्वारा आनुवंशिक प्रजा वर्ग पर हुकूमत है। यह स्थिति वर्णव्यवस्था से बहुत कुछ मिलती जुलती है। ऊपर से लगता है कोई भी आदमी चुना जा सकता है, मंत्री हो सकता है, शासन कर सकता है।
वास्तव में शासक वर्ग एक तरह वर्ण बन जाता है। उसी में से, थोड़े से उलटफेर के साथ, शासक चुने जाते हैं। जो प्रजा वर्ग है, वह सदा शासित बना रहता है।’
उन्होंने सामाजिक अंतर्विरोधों को रेखांकित करते हुए 26 नवंबर 1950 को कहा था कि हम राजनीतिक जीवन में ‘एक व्यक्ति और एक मूल्य’ को लागू करेंगे, लेकिन सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में एक व्यक्ति एक मूल्य को नहीं मानेंगे। यदि सरकार में इस असमानता को समाप्त करने के लिए सार्थक प्रयास नहीं किये तो, शोषण के शिकार लोग राजनीतिक लोकतंत्र की धज्जियां उड़ा देंगे।
असल में वह एक ऐसा राष्ट्र चाहते थे जहां समस्त नागरिक अपने साथी नागरिकों के प्रति समानता का व्यवहार करने वाला सामाजिक लोकतंत्र बनें।
सादर नमन
डॉ नीरज कृष्ण
वरिष्ठ साहित्यकार
पटना, बिहार