चलकर देखें
इरादा कर ही लिया जब कि चलते जाना है
फिर जरूरी है क्या कि अँधेरे को हम डरकर देखें
हौसला लेकर चलें हल की तरह कांधे पर
जहाँ पर रौशनी का घर है वहाँ चलकर देखें
कसैलेपन के लिए जिंदगी ही काफी है
ये जरूरी नहीं कि हर बार हम मरकर देखें
जहाँ खुश्बू है कम और काँटों की याद है ज्यादा,
नहीं ये शौक कि उस अतीत को मुड़कर देखें
चंद गुनाह भी जरूरी है रास्ते के लिए
सीढ़ियाँ इश्क़ की मिल जाए तो चढ़कर देखें
गैर के दम पर नहीं पलती है नदी ख्वाहिश की
अपने हिस्से के मुकद्दर को खुद गढ़कर देखें
जो बन जाए वजह खूबसूरत जीने की
अपनी आँखों को ऐसे ख्वाबों से भरकर देखें !
— डॉ कल्याणी कबीर
वरिष्ठ साहित्यकार और प्राचार्या
(जे.के.एम.डिग्री कॉलेज)