कोरा कागज

कोरा कागज

सफेद गंदगी से कोसों दूर,
दो मोटे तहों के बीच सहेज कर रखी,
काली धब्बे स्याह से बची ।
कोरा कागज था सिर्फ कोरा।
जमाने की गंदगी से महरूम था वह,
रोडे हिचकोले को जानता नहीं था पहचानता नहीं था। अनगिनत लिखावटों से घिरा है अब वह।
रंग रूप से अपना स्वरूप खो चुका ।
कई धब्बे लग चुके हैं अब उसके दामन में ।
अपनी हाल से बेहाल है वह ।
क्योंकि कभी ——————-।
रहम करता नहीं क्यों ,कोई उसपर ।
तीव्रता से कलम की नोक को चुभोता है हर कोई उस पर। दर्द की उसकी एहसास होता नहीं क्यों किसी को। कातिल सा वह कलम खंजर सा वार करता है।
शांत पन्नों पर जख्मों को जगाया जाता है।
क्योंकि कभी –——————-।

सरिता सिंह
साहित्यकार
जमशेदपुर

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