कैसे दिन फिरते जाते हैं

कैसे दिन फिरते जाते हैं

कैसे दिन फिरते जाते हैं
मास दिवस लगते पर्वत से,
उलझन नित बनते जाते हैं
कैसे दिन फिरते जाते हैं।

बाग बगीचे घूमने के दिन
छोटी अमिया लाने के दिन
कूक पपीहा बौराते हैं
कैसे दिन फिरते जाते हैं।

चैता फागुन खा गया कहर
यह फैल गया है शहर-शहर
सपने में सुख अब आते हैं
कैसे दिन फिरते जाते हैं।

पति-पत्नी और बच्चे बंद हैं
घर में सब तंग ही तंग हैं
ना कोई आते -जाते हैं
कैसे दिन फिरते जाते हैं।

शहर सड़क सूना सा दिखता
पुलिस बंधु का पहरा पड़ता
बुरे हुए दिन तड़पाते हैं
कैसे दिन फिरते जाते हैं।

डॉ अरुण सज्जन
वरिष्ठ साहित्यकार
जमशेदपुर, झारखंड

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