कैसे ठहरता बसन्त
बसन्त यहां भी आया था
द्वार पर ही थी
अनुरागी किसलय से भरी थी अंजुरी
लहकती उमंग-तरंग
सोमरस से भरे घट,
परिणय पल्लवों को छूती मंज़र
उन पर बैठी अभिलाषा पिक
अभी कुहुक ही रही थी
पूरी तरह पंचम स्वर पकड़ी भी नहीं
ऊपर कहीं से अनायास निर्विघ्न चक्रवाती तूफान ने
घेर लिया बड़ी बेरहमी से
पलभर में अंधेरा छा गया
संज्ञा विहीन चेतना शून्य
पत्थर, गोलियां ,धधकती ज्वालायें
हाहाकार , चीत्कार,
संसार के ताण्डव की
भीषण विभीषिका
यहां से वहां, वहां से यहां
पसरती चली गई
देर रात कुछ होश आया
सब रंग बदरंग , निर्वस्त्र मानवता
सिसकती आत्मीयता,नीलाम अस्मिता
धुली सुहागिन मांग, सड़कें लाल
भाइयों की कलाइयों से गिरी राखियां
कलपती गोद ,जगह जगह गुदी काठी
टूटे नोनिहाल सपने,दुधमुंहे से छिना दूध
चारों तरफ धराशायी दरख़्त
मसलती गई कलियां बिलखते फूल
दम तोड़ती कोयलें,उजड़ी डाल
भीगी राख खूनी हाथ
कैसे ठहरता बसन्त भी
मेरे द्वार
डॉ रागिनी भूषण
शिक्षाविद और वरिष्ठ साहित्यकार
जमशेदपुर, झारखंड