“कुछ कही, कुछ अनकही”
जीवन में अनेक पहलू ऐसे आते हैं जो अंतस में खलबली तो मचाते हैं पर उसको बाहर लाना सरल नहीं होता और यही बात कई बार अंदर घुटन उत्पन्न करती है तो अनेकों बार हम उसी में खुशी ढूंढ लेते हैं। ज़िन्दगी के यही चढ़ते-उतरते पड़ाव हमारे जीवन की कहानी बन जाते हैं। हम व्यर्थ ही इधर-उधर कहानी का विषय तलाशते हैं, अगर देखा जाए तो वास्तव में जीवन के हर रंग में अपनी एक कहानी छुपी है, हर भाव में एक संवेदना छुपी है, हर रस में एक अनोखे ढंग का स्वाद छुपा है। जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य न जाने कितने ही रंगों से गुज़रता है, न जाने कितने पड़ावों से निकलता है, कभी गिरता है, कभी उठता है, कभी तलाशता है, कभी सिसकता है, कभी हास्य तो कभी आँसू, कभी कल्पना तो कभी यथार्थ, कभी सत्य तो कभी झूठ, कभी धोखा तो कभी अपनत्व, कहीं प्रेरणा तो कहीं दूरियाँ और वास्तव में यही हमारी कहानी है और जीवन भले ही बहुत छोटा है किंतु उसमें होने वाली घटनाओं को देख लगता है मानों ज़िन्दगी बहुत बड़ी है।
अपने जीवन के अनमोल पलों को लेखनी में बाँधते हुए आँखों के समक्ष बहुत कुछ आ रहा है। क्या लिखूँ, क्या नहीं। क्या जोडूं, क्या छोडूं और किन रास्तों से होती हुई इस मार्ग पर आई कि कुछ लिख सकूं, कुछ अपने बारे में बता सकूं, इन सबको कलमबद्ध करना यदि कठिन लग रहा है तो रोमांचित भी कर रहा है। क्योंकि उम्र के इस पड़ाव में मैंने वो समय भी देखा जब इंसान को इंसान से लगाव था, दिखावा नहीं था और मनुष्य छोटी से छोटी बातों में भी खुशी के पल खोज लेता था और आज का दौर भी देखा जब हर कार्य स्वार्थ पर टिका होता है, जब मनुष्य दूसरे की प्रगति से जलता है और घरों में दूरी कम होते हुए भी दिलों में दूरी बढ़ गयी है। आज हर रिश्ते के बीच एक दीवार खड़ी है जो अनजाने में ही निकटता खत्म कर रही है। ऐसे माहौल में व्यक्ति खुद में सिमट कर रह गया है और यही एकांत उसको कलम उठाने पर मजबूर कर देता है।
२४ दिसंबर १९५६ को मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में एक साधारण गुजराती नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ। माँ बताती थीं कि कड़कती ठंड में जब नर्स ने मुझे उनकी गोद में दिया तो क्रिसमस डॉल कहकर संबोधित किया। पिताजी खुशी से फूले नहीं समाये क्योंकि उनको बेटियों से बहुत लगाव था। उस समय जब बेटों के होने पर खुशी मनाई जाती थी और पुत्र का आना सौभाग्य समझ जाता था, पिताजी ने मेरे जन्म पर पूरे मोहल्ले में लड्डू बांटे थे। मेरी नानी बताती थीं कि जन्म से पहले ही मेरा नाम सोच लिया गया था तो जैसे ही पता चला कि कन्या ने जन्म लिया है, ‘नीरजा’ नाम रख दिया गया किन्तु मेरा गोल व गोरा और दमकता मुखड़ा देखकर लोग ‘चंद्रमुखी’ कहकर मुझे बुलाने लगे।
धीरे-धीरे मैं बड़ी हुई और जीवन भी उसी गति से चलता रहा। मेरी यादों का प्रारम्भ मेरठ से हुआ, जब मैं चार-पाँच वर्ष की थी। मेरी आँखों के सामने एक ऐसी घटना घटी जो मेरे बाल मन में अंदर तक बैठ गयी। आमतौर पर इतनी छोटी उम्र की बातें बच्चों को याद नहीं रहतीं परन्तु मेरठ में जहाँ हम रहते थे, हमारे घर के सामने मैदान में ऐसी घटना घटी जो मेरे बालमन में कहीं गहरी बैठ गयी।
हुआ यूँ था कि एक बार पिताजी काम के सिलसिले में शहर से बाहर गए हुए थे और तभी मेरठ में अचानक हिन्दू मुस्लिम झगड़े शुरू हो गए। उन दिनों बड़े- बड़े घर होते थे तो स्वाभाविक था कि बहुत आस पास नहीं होते थे। हमारे घर के सामने मैदान में अनेकों मनुष्य लड़ते हुए दीख रहे थे, एक दूसरे को मार काट रहे थे। एक दूसरे के खून के प्यासे लोगों को देखकर हम बहुत भी डर गए, माँ ने हमको बैठक में जाने को मना कर दिया। लड़ते हुए लोग कई बार हमारे बैठक की खिड़कियों में आकर अंदर झाँकते, काँच पर हाथ मारते तो हमारी जैसे जान ही निकल जाती। मैं माँ का पल्लू पकड़कर उनके पीछे छुप जाती। उस दिन की लड़ाई का जो दृश्य था वो बहुत ही भयंकर था, इधर-उधर जान बचाते भागते लोग, हाथों में चक्कू तलवार लिए एक दूसरे को काटते लोग और खून से सना बदन मुझे आज भी याद है। रात हुई तो माँ ने लाइट जलाने से मना कर दिया, हम अँधेरे में एक कोने में दुबके बैठे रहे। रात जागते हुए बिता दी। अचानक सुबह तड़के किसी ने दरवाज़ा खटखटाया, हमने दरवाज़ा नहीं खोला तो बाहर से कोई बोला, “मैं भटनागर हूँ”। माँ ने उनकी आवाज़ पहचान ली और दरवाज़ा खोल दिया। दरअसल वो मेरे पिताजी के मित्र थे जिन्हें पता था कि पिताजी घर पर नहीं हैं और हम यहाँ अकेले हैं तो वो हमको अपने घर ले जाने आये थे। बाहर उस समय शान्ति थी तो पीछे के दरवाज़े से गलियों से होते हुए हम उनके घर पहुँच गए।
इस घटना का जिक्र इसलिए आवश्यक लगा क्योंकि इससे हमको उस समय के लोगों के व्यवहार का पता चलता है क्योंकि आज के ज़माने में स्वतः शायद ही कोई बिन बुलाए सहायता के लिए आएगा और वो हमारे लिए देवदूत बनकर आये थे। शायद उन्हीं के कारण हम जिन्दा बच पाए। तीन दिन तक झगड़े चलते रहे उसके बाद हम अपने घर वापस आये। अब सोचती हूँ तो लगता है माँ भी कितना डरी होगी लेकिन हमारे सामने हिम्मत नहीं हारी, उस समय हमारी हिम्मत वही थीं क्योंकि भाई और मैं दोनों ही छोटे थे। उन दिनों फ़ोन की भी सुविधा नहीं थी अतः पिताजी से भी संपर्क नहीं कर पाए थे। जब तक पिताजी वापस नहीं आये तब तक माँ ने हिम्मत बाँधे रखी लेकिन पिताजी के वापस आने के बाद माँ बहुत रोईं थीं। तब मैं ये नहीं समझ पाई थी कि माँ इतने दिन बाद अब क्यों रो रही हैं, पर आज मुझे उनके दर्द का एहसास है।
मेरे पिताजी ‘स्व.श्री श्रीनारायण नागर’ बोर्ड ऑफ रेवेन्यू में अकाउंट्स ऑफिसर थे, उनकी नौकरी कुछ इस तरह की थी कि उनको महीने में पंद्रह दिन बाहर रहना पड़ता था और स्थानांतरण भी होता रहता था। मेरे पिताजी बहुत ही साधरण परिवार से थे किंतु उनकी मेहनत और लगन ने उनको ये मुक़ाम दिलाया। सड़क की लाइट के नीचे बैठकर तो कभी लालटेन की रोशनी में और कॉलेज के लिये मीलों पैदल चलकर उन्होंने शिक्षा ली, बी.कॉम. किया और उच्च पद पर आसीन हुए।
मेरी माताजी ‘स्व. विमला नागर’ बहुत अच्छे परिवार से थीं, उनके नाना की इलाहाबाद में हवेली थी जो मोतीलाल नेहरू से खरीदी गयी थी और पूरे इलाहाबाद शहर में उनका नाम था। सर सुंदरलाल दवे उनके नानजी थे जिनको “सर” की उपाधि दी गयी थी। मेरी माताजी बहुत ही नेक और सुलझी महिला थीं, उस ज़माने में जब लड़कियाँ घर से बाहर नहीं निकलती थीं, उन्होंने बी.ए. तक शिक्षा प्राप्त की और तीन वर्ष विद्यालय में अध्यापिका के पद पर शिक्षण कार्य भी किया।
मेरे माता-पिता ने मेरे बड़े भाई व मुझको अच्छी शिक्षा व संस्कार दिए। उन्होंने हमको ज़िन्दगी से रूबरू कराया और जीवन के उत्तर-चढ़ाव समझाए। उन्होंने भौतिक सुख सुविधाओं से भले ही हमको दूर रखा किन्तु अच्छे खान पान और शिक्षा से कभी वंचित नहीं किया। कड़ी मेहनत, सच्ची लगन और अनुशासन को उन्होंने हमको घोल कर पिला दिया। उन्हीं की प्रेरणा से हम आगे बढ़े जिसके फलस्वरूप मेरे भाई ‘श्री संजय दवे’ बहुत ही उच्च पद से रिटायर हुए।
मैं भी बचपन से मेधावी थी और पढ़ाई में मेरी गहरी रुचि थी। हिन्दी साहित्य की तरफ विशेष रुझान था। साहित्य में ये रुचि भविष्य में मुझे एक लेखिका बना देगी इसका मुझे इल्म न था। आज मैं जो कुछ भी हूँ मेरे माता पिता के दिए संस्कारों का ही परिणाम है। हमारे अंदर बड़ों को लेकर एक भय था, हाँ उसे आदर कहना अधिक उपयुक्त होगा तभी कुछ करने से पहले हिचकते थे। अभी मैं सातवीं कक्षा में ही थी और मेरे भाई नौंवीं कक्षा में थे कि मेरे पिताजी पचपन वर्ष की आयु में सेवानिवृत्त हो गए। मजबूरन हम भाई बहन को कान्वेंट स्कूल से उनको हटाना पड़ा और हम सरकारी विद्यालय में आ गये। आज सोचती हूँ कि कैसे उन्होंने हमको पढ़ाया होगा क्योंकि उनको सिर्फ 195 ₹ पेंशन मिलती थी और घर का किराया 95 ₹ था। नमन करती हूँ मैं उनको कि उन्होंने कभी भी हमको किसी कमी का एहसास नहीं होने दिया। आज सोचती हूँ तो आँखें नम हो जाती हैं और श्रद्धा से नतमस्तक हो जाती हूँ।
पढ़ने का मुझे बचपन से शौक था और मैं हमेशा कक्षा में प्रथम, द्वितीय ही आती थी। अनेकों विषयों में प्रारम्भ से ही हिंदी मेरा प्रिय विषय था। अपनी पुस्तक की सारी कविताएं कंठस्थ कर लेती थी और यही वजह रही कि पंद्रह वर्ष की आयु में मैंने अपनी पहली कविता माँ पर लिखी। विद्यालय में जब अपनी सहेलियों को दिखाया तो सभी ने बहुत सराहा, इसी तरह अपनी रफ कॉपी का उपयोग भी दो-दो पंक्तियों की तुकबंदी लिखकर खूब किया।उस समय खुद के लिखे टूटे-फूटे शेर भी लिखना हमारे लिए बड़ी बात थी। आगे की सारी पढ़ाई मेरी लखनऊ में हुई। मैंने बी.ए., एल एल. बी. तक शिक्षा प्राप्त की। न जाने क्यों मुझे वक़ालत पढ़ने का भूत सवार हो गया था इसीलिए मैंने उसकी शिक्षा ली किन्तु एल एल.बी. करने के बाद जब मैं किसी वकील से शिक्षा लेने गयी तो आनंद नहीं आया और मैंने वक़ालत न करने का मन बना लिया। बचपन से साहित्यिक पुस्तकें पढ़ीं थीं। पिताजी अपने कार्यालय के पुस्तकालय से साहित्यिक उपन्यास, कहानी की पुस्तकें और काव्य रस में डूबी महादेवी की रचनाएं लाकर देते तो मैं उनमें डूब जाती। अनेकों साहित्यकारों की पुस्तकें पढ़कर साहित्य की तरफ रुझान होना स्वाभाविक था, उसी साहित्य ने मुझे लेखन की ओर प्रेरित किया। धीरे-धीरे लिखना शुरू किया पर मैंने उस समय अपनी लिखी हुई रचनाओं को कभी गंभीरता से नहीं लिया, खुले पृष्ठों में लिखती और उसको सहेजने के बारे में कभी सोचा ही नहीं। अब सोचती हूँ यदि डायरी में सहेजा होता तो अब तक न जाने कितनी ही रचनाएँ मेरे पास एकत्रित होतीं।
समय बढ़ा और मैं उम्र के उस मोड़ पर आ गयी जब घर में माता-पिता मेरी शादी की बात करने लगे। जहाँ ये बातें सुन मन गुदगुदा जाता वहीं पराये घर जाने की बात से दिल सहम भी जाता। भाई के विवाह के एक वर्ष बाद मेरा भी विवाह हो गया और मैं लखनऊ छोड़कर जबलपुर आ गयी। यहीं से मेरी ज़िंदगी ने नया मोड़ लिया। साहित्य, लेखन तो दूर ये सोचने का भी वक़्त न मिलता कि चार पंक्तियाँ भी लिख लूँ। ढेर सारी जिम्मेदारी, परिवार और गृहस्थी ये सब देख एकबारगी तो बचपन के वो बेफ़िक्र भरे दिन याद आ गए पर यही जीवन है, हर मोड़ से गुज़रती ज़िन्दगी को एक चुनौती समझकर निभाना ही जीवन है। पति के प्यार, उनके साथ ने मुझे संभाला। कई बार ऐसा मोड़ आया कि मैं टूट जाती पर उनके साथ ने मुझे हारने नहीं दिया। विवाह के दो वर्ष बाद मेरे पति ‘श्री मुकुंद मेहता’ को देहली में नौकरी मिल गयी और हम देहली आ गए। यहीं मुझे दो बार माँ बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। बेटी जब 3 वर्ष की हुई तब मैंने विद्यालय में शिक्षण कार्य आरम्भ किया। बीच में बेटे के जन्म पर मैंने दो वर्ष के लिए शिक्षण कार्य छोड़ दिया था, पुनः उसी स्कूल में पढ़ाने चली गयी थी।
हर लड़की का एक सपना होता है, उसका अपना घर हो, उसके अपने संसार में एक प्यार करने वाला, उसको समझने वाला जीवन साथी हो और बच्चों के रूप में प्यार की निशानियाँ हों। मैं भी इस भावना से अछूती नहीं थी। मुझे भी एक ऐसे रिश्ते की तलाश थी जहाँ विश्वास हो, क्षमा हो, समर्पण हो, अंतरंगता हो और अपनापन हो। मेरी ये तलाश पूरी हुई जब मैंने अपने पति को क़रीब से जाना।
हमारा प्रेम विवाह तो था नहीं, वो जबलपुर में और मैं लखनऊ में। बात करना तो दूर हमने एक-दूसरे को ठीक से देखा तक नहीं था। फ़ोन की सुविधा थी नहीं और पत्रों का आदान-प्रदान हुआ नहीं। अब ऐसे में मन में एक डर और संकोच बना हुआ था। हमारे मन की बातों से अनजान घर के बड़ों ने फैसला लिया और 30 नवंबर 1981 को शहनाई बजवा दी। हम हाँ-ना कि स्थिति के बीच में झूलते विवाह सूत्र में बंध गये।
पति-पत्नी के रिश्ते की डोर जितनी कोमल होती है उतनी ही मज़बूत भी। हमारे रिश्ते में हमने कभी एक-दूसरे के सम्मान को टूटने नहीं दिया। संयम, संतुष्टि, समर्पण, संवेदनशीलता, संकल्प, सक्षम व संतान ये “सात स” पति-पत्नी को बांधे रखते हैं। शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक स्तरों पर दोनों ही एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। पत्नी होने के अगर मेरे कुछ कर्तव्य हैं तो दूसरी तरफ कुछ अधिकार भी हैं– इस बात को हमेशा ध्यान में रखा कि कहीं मैं सिर्फ अधिकार ही तो नहीं मांग रही। दूसरी ओर पति ने न सिर्फ मुझे विश्वास दिया अपितु पत्नी का पूरा हक़ व मान भी दिया।
संतान पति-पत्नी के रिश्ते की मज़बूत कड़ी होती है। जब पहली बार माँ बनी तो गोद में चाँद सी बेटी देखकर फूली न समाई। विश्वास करना मुश्किल था कि मैं भी मां बन गयी हूँ। जब वो रोती हम दोनों परेशान हो जाते, वो हंसती तो हम भी खिलखिला उठते। उसके आने से मानो हमारा बचपन लौट आया था। इतने छोटे बच्चे की हर हरकत हमको अद्भुत लगती। उसको सहलाना, सुलाना, थपथपाना, गोदी में घुमाना, बाहों का झूला देना, रातों को जागना आदि बेटी की हर छोटी-बड़ी जरूरतें हमने साथ पूरी कीं। बेटी के जन्म के पाँच वर्ष बाद बेटे का जन्म हुआ। हम एक बेटी और एक बेटा पाकर बहुत प्रसन्न थे।
लिखने का शौक बचपन से था लेकिन गृहस्थी संभालने और बच्चों की परवरिश के कारण मुझे अपने शौक पर कुछ वर्ष के लिए विराम लगाना पड़ा। सच कहूँ तो दोनों बच्चे बचपन से ही अपने पिता के मुकाबले मुझसे अधिक जुड़े हैं। उनकी कोई भी ज़रूरत मेरे बिना पूरी नहीं होती थी, कदम-कदम पर मेरी सलाह लेना, हर कार्य में मेरी सहायता लेना, अपने मन की बात मुझे बताना उनकी आदत में शुमार था। ऐसे में अपने सब काम छोड़ कर उनपर अधिक ध्यान केंद्रित होता था और होता भी क्यों नहीं, आखिर माँ जो थी उनकी। और मैंने भी कलम तब उठाई जब वो स्वयं अपना ध्यान रखने लगे।
बेटी ‘स्तुति मेहता’ को संगीत व नृत्य में रुचि थी तो उसको सीखने का पूरा अवसर दिया। शास्त्रीय संगीत व कथक नृत्य की शिक्षा दिलवाई और इसी कारण वो आज एक अच्छी गायिका व नृत्यांगना है। बेटे ‘व्योम मेहता’ को कंप्यूटर में रुचि थी तो उसने आगे की शिक्षा उसी में ली। अपने जीवन के इस सफर में हमने कई उतार-चढ़ाव देखे, मुश्किलें भी आईं, मतभेद भी हुए, ससुर जी व माँ-पिताजी का अंतिम समय भी देखा, बेटे की बीमारी और ऑपेरशन जैसे कठिन समय से भी गुज़रे, कभी बच्चों की पढ़ाई की उलझन तो कभी उनको उनके मुक़ाम तक पहुँचाने की चिंता पर छोटी-छोटी बातों में हमनेे बड़ी-बड़ी खुशियाँ ढूँढी और मुश्किलों को नज़रअंदाज़ किया। हर पीढ़ी इस सफ़र से गुजरती है पर सभी का अनुभव कुछ अलग होता है।
अपने जीवन की कहानी आगे बढ़ाते हुए और अपने जीवन के कुछ अहम पल बताती हूँ। मैंने लगभग तीस वर्ष विद्यालय में पढ़ाया। कई खट्टी-मीठी यादें संजोयीं पर कहना चाहूंगी कि बच्चों के साथ समय बिताना अपने आप में एक अलग अनुभव है। उनके साथ कभी बच्चा बनकर तो कभी उनकी माँ बनकर तो कभी उनके दोस्त बनकर उनको अपना बनाना होता है। देहली के एक पब्लिक स्कूल में अध्यापन कार्य करते हुये विद्यार्थियों से लेकर शिक्षकों तक एक ऐसा अटूट संबंध बना जो सेवानिवृत्ति के बाद भी कायम है। आज भी विद्यार्थी फ़ोन पर अपनी समस्याओं का समाधान पूछते हैं।
अध्यापन में आगे बढ़ने के लिए मैंने बी.एड. करने का मन बनाया किन्तु मुश्किल ये थी कि बी एड की पढ़ाई सरल नहीं थी। घर में दो छोटे बच्चे, घर गृहस्थी का कार्य, स्कूल में शिक्षण और बी एड की भारी पढ़ाई, ये सब इतना सरल न था। पर कहते हैं न कि यदि मन में लगन हो तो सब कार्य हो जाते हैं। मैंने भी ठान ली थी कि कुछ भी हो जाये बी एड करना है और नौकरी नहीं छोड़नी। बस फिर क्या था अन्नामलाई विश्वविद्यालय से पत्राचार पाठ्यक्रम के लिए फॉर्म भर दिया और जैसे ही पुस्तकें आईं पढ़ाई प्रारम्भ कर दी। मैं सुबह 4:30 बजे उठती, रात तक का भोजन तैयार कर, घर के अन्य जरूरी काम निपटा कर पहले विद्यालय , दोपहर को विद्यालय से कांटेक्ट प्रोग्राम के लिए जाती तो घर आते-आते रात के नौ बज जाते। दिन भर की थकी जब घर आती तो बच्चों को देख सारी थकान भूल जाती। पति चाय बनाकर देते, फिर रात को भोजन करके दूसरे दिन की तैयारी प्रारम्भ कर देती। उसके बाद बच्चों को सुलाकर मैं बी.एड. की फ़ाइल, चार्ट, पाठ योजना तैयार करती, पति इसमें भी मेरी पूरी सहायता करते। रात को जब सोती तो एक बज जाता। इस तरह पूरा वर्ष कड़े परिश्रम में बीता और उन दिनों मैंने बीस-बीस घण्टे काम किया। परीक्षा दी और जब परिणाम आया तो घर में उत्सव जैसा माहौल हो गया। धीरे-धीरे मैंने शिक्षण के साथ पति की सहायता से हिंदी साहित्य और संस्कृत साहित्य में एम.ए. किया और प्राइमरी अध्यापिका से T.G.T. बन गयी। आज पूर्वी देहली के जाने माने श्रेष्ठ विद्यालयों में हमारे “विवेकानंद पब्लिक स्कूल” का बहुत नाम है। घर गृहस्थी, विद्यालय में शिक्षण कार्य और दो छोटे बच्चों के साथ ये इतना सरल न था। इन सबमें मेरे पति ने मुझे पूर्ण सहयोग दिया। आज जिस मुकाम पर हूँ उसका श्रेय मेरे परिवार को जाता है। विद्यालय से मुझे 1997 और 2008 में दो बार बेस्ट टीचर अवार्ड भी प्राप्त हुआ और 2018 में शिक्षा के लिए दी सेवाओं के लिए मुझे “लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड” भी मिला।
अपने जीवन की इस यात्रा का वर्णन करते हुए अपनी साहित्यिक यात्रा के बारे में अवश्य बताऊँगी क्योंकि ये यात्रा मन से शुरू हुई और कलम द्वारा कागज़ पर उतरी। ऐसी यात्रा जिसके लिए किसी आवागमन के साधन की आवश्यकता नहीं है क्योंकि ये यात्रा मन में उठ रही हिलोरों की है, उन तरंगों की है जो कलम रूपी वाहन द्वारा कागज़ रूपी मार्ग पर चलकर ही पूरी होती है। सीधे मन से निकलती हैं, और कलम उठाकर ही रुकती हैं। किंतु पुनः नयी लहरें उमंगें लेने लगती हैं, पुनः लेखनी का सहारा लेना पड़ता है, इस प्रकार ये यात्रा अनवरत चलती रहती है। मेरे मन की ये यात्रा जो एक बार प्रारम्भ हुई तो थमने का नाम ही नहीं ले रही। मेरी कल्पनाओं के आंगन में अटखेलियाँ करते, उमड़ते-घुमड़ते शब्द जब मन-मस्तिष्क पर विचारों का मंथन करते तो अंतस में अनुभूति व अनुभव का अनूठा संगम तैयार होता और अनकहे शब्दों का कोष खुल जाता मानों शब्दों को पंख लग गये हों और आतुर कलम भावों को अभिव्यक्ति में ढाल देती।
बचपन से साहित्य में रुचि थी। साहित्यिक उपन्यास, कहानियाँ, कवितायें पढ़कर मन में भाव उठते थे पर शायद उन एहसासों को लेखनीबद्ध करना नहीं आता था। धीरे-धीरे बड़ी हुई तो कभी लेख तो कभी कहानी या कभी कविता लिखने लगी किन्तु मुझमें भी एक लेखक छुपा है इसका इल्म तक न हुआ इसीलिए लिखे हुए पन्ने कभी संभालकर भी नहीं रखे। फिर पढ़ाई, शादी, घर-गृहस्थी, बच्चे और नौकरी में ऐसी उलझी कि साहित्य के लिए समय ही न मिला पर जब भी थोड़ा समय मिलता अपनी निजि डायरी में लिख लेती। कुछ समय तक मानों साहित्य से नाता ही टूट गया था किंतु बचपन की दबी भावना यूँ ही समाप्त नहीं होती। समय के साथ पुनः मुखरित हुई और धीरे-धीरे सृजन की ओर उसने अपना रुख़ किया।
फिर आगरा से प्रकाशित गुजराती समाज की पत्रिका “नागर समाचार” में मैंने अपनी कविताएँ भेजनी शुरू कीं जो प्रकाशित भी होने लगीं। जब बच्चे बड़े होने लगे तो मुझे लेखन का समय मिलने लगा। कुछ समाचार पत्र व अन्य पत्रिकाओं में भी प्रकाशन होने लगा। मेरी रुचि इसमें बढ़ने लगी। जब भी समय मिलता मैं अपनी डायरी लेकर बैठ जाती। मन में विचारों का मंथन चलता रहता। कभी कविता, कभी लेख, कभी कहानी तो कभी गीत–विभिन्न विधाओं में अपनी लेखनी का जादू बिखेरती ये साहित्यिक यात्रा मेरे जीवन से जुड़ गई है। इसके बिना मुझे रिक्त सा लगने लगा।
2012 में बेटी का विवाह किया, ये एक बहुत बड़ा काम था क्योंकि बेटी को विदा करना सरल नहीं। जिसको इतने लाड़-प्यार से पाला, उसको दूसरे के हाथ सौंपते हुए दिल बहुत घबराया पर पति ने समझाया कि तुम भी तो अपने माता-पिता को छोड़कर आई थी। बेटी की विदाई के बाद मैं बहुत अकेलापन महसूस करती थी। मेरे अकेलेपन को देखकर बेटे ने मुझे फेसबुक से जोड़ दिया। यहाँ मुझे साहित्य के लिए मंच मिला। ये भले ही आभासी दुनिया है पर यहीं मेरे साहित्य को विस्तार मिला। फ़ेसबुक पर कभी-कभी कुछ पंक्तियाँ लिख दिया करती थी तो कुछ साहित्य मर्मज्ञों ने मुझे साहित्यिक समूह से जोड़ दिया जिससे लेखन में वृद्धि हुई और नई विधाएं सीखने को मिलीं। कुछ साहित्यकारों से भी परिचय हुआ। उसके बाद जब व्हाट्सएप्प शुरू हुआ और उसमें समूह बनने लगे तो मुझे वहाँ भी साहित्यिक समूहों में जोड़ लिया गया। इस तरह साहित्य से नाता गहरा हो गया। अब प्रतिदिन लेखन का कार्य होने लगा। विद्यालय के कारण समय कम मिलता था लेकिन सक्रिय रहने का पूरा प्रयास करती थी। धीरे-धीरे संपादकों व प्रकाशकों से परिचय हुआ। देश विदेश की ई-पत्रिकाओं, समाचार-पत्रों व पत्रिकाओं में मेरी रचनाएं प्रकाशित होने लगीं किन्तु पुस्तक में प्रकाशन तब तक नहीं हुआ था।
तभी राजस्थान के एक संपादक व लेखक के बारे में पता चला जो एक साझा काव्य संग्रह का प्रकाशन करने वाले थे। मैंने उनसे बात की तो उन्होंने मेरी रचनाएं मंगवाईं और जब उनको रचनाएं पसंद आ गयीं तो वो प्रकाशित करने के लिए तैयार हो गए और इस तरह 2015 में पहली बार “कदमों के निशान” पुस्तक में मेरी ग्यारह रचनाएं छपीं। ये मेरे लिए बहुत बड़ा अवसर था। 12 अप्रैल 2015 को उसके विमोचन पर मैं राजस्थान गयी और वहाँ मुझे मिला मेरा पहला “साहित्यकार सम्मान”।
लिखने के बाद प्रकाशन की चाह भी लेखक में होती है, मुझमें भी थी। लिख तो मैं कई वर्षों से रही थी पर प्रकाशन के मंच से वंचित थी। जब ये अवसर मिला तो भला हाथ से कैसे जाने देती। मुझे जैसे एक नई राह मिल गयी हो। एक पुस्तक से जुड़ते ही कई संपादकों व प्रकाशकों ने संदेश भेजने शुरू कर दिए और इस तरह एक-के-बाद एक कई साझा काव्य, लेख व कहानी संग्रहों में मेरी रचनाओं का प्रकाशन होने लगा जो अभी भी जारी है। लेखन का समय मुझे कम मिलता था क्योंकि विद्यालय में अध्यापन कार्य, घर का काम, बच्चे यद्यपि बड़े हो रहे थे किंतु उनकी पढ़ाई, नौकरी, विवाह आदि की चिंता भी रहती। इन सबके बावजूद मैं लेखन से दूर न रह सकी। जब समय मिलता लिख लेती। कभी विद्यालय में खाली पीरियड में, कभी परीक्षा की ड्यूटी करते वक़्त, कभी बीच रात में उठकर जैसे भी होता लिखती। मेरे मन पर लेखन हावी था। शायद ये एक जुनून था, है और रहेगा।
जब दो शोध ग्रंथों में मेरी रचनाएं छपीं तो साहित्य को एक नया आयाम मिला और 2016 में प्रकाशन हुआ मेरे दो एकल काव्य संग्रहों का, “मन दर्पण और नीरजा का आत्ममंथन”। ये सब इतनी जल्दी हो जाएगा कभी सोचा तक नहीं था। ये सिलसिला यहीं पर ही नहीं थमा। कविता, कहानी, लेख आदि के प्रकाशन पर विमोचन के अवसर पर निमंत्रण मिलने लगे। देहली, राजस्थान से गुजरात, उत्तर प्रदेश से मध्य प्रदेश तक इस साहित्यिक यात्रा का विस्तार हुआ। काव्य गोष्ठियों में काव्य पाठ का सुनहरा अवसर भी कई बार मिला और अनेकों संस्थाओं व समूहों द्वारा सम्मानित भी किया गया। पुस्तक व कविता समीक्षा लिखने व पुस्तकों के संपादन का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ।
उसके बाद 3 जनवरी 2016 को ग्वालियर (म.प्र.) के “साहित्य कला परिषद” द्वारा साहित्य के महाकुंभ में मुझे “काव्य साहित्य सरताज उपाधि” दी गयी। ये मेरे लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी।
बेटी एक वरदान है, बेटी घर की शान है। ये सच है कि जिस घर में बेटी की पायल की आवाज़ गूँजती है उस घर में लक्ष्मी का वास होता है, सुख का वास होता है, जीवन पूर्ण होता है। वो बेटी ही है जिसकी परछाई हर रिश्ते में दिखती है। एक साथ कई रिश्तों को निभाने का गुण उसमें होता है। उस बेटी को विदा करते हुए माता-पिता का दिल कितना दुःखता होगा। हमारा भी दुःखा था किन्तु जब उसने हमारी गोद में अपना बेटा यानि हमारे नाती को दिया तो मन पुलकित हो गया, बेटी की विदाई के खुशी मिश्रित ग़म को हम भूल गए।
आप सोचेंगे कि साहित्य की बातों के बीच नाती कहाँ से आ गया पर इसी नाती से जुड़ी है मेरी अगली पुस्तक। नाती के जन्म के बाद मुझे बच्चों के लिए कुछ लिखने का मन हुआ। मैं सोचती थी कि जब नाती बड़ा होगा तो मैं उसे क्या सुनाऊँगी, इसी तरह विचार करते-करते एक दिन मैंने बाल कविता “मछली” लिखी जो फेसबुक व व्हाट्सएप्प पर बहुत पसंद की गई। उसके बाद मैंने कई बाल कविताएँ लिखीं और उनको एक पुस्तक “उमंग” के रूप में ‘हिंदुस्तानी भाषा अकादमी’ द्वारा प्रकाशित करवाया। देहली के प्रगति मैदान के विश्व पुस्तक मेले में 14 जनवरी 2017 को उमंग का विमोचन हुआ। ये पुस्तक मैंने अपने नाती “वितीन” को समर्पित की। ये पुस्तक काफ़ी चर्चा का विषय रही और बहुत लोगों द्वारा पसन्द की गई। उसी वर्ष संस्मरण पर आधारित “परछाइयाँ” पुस्तक भी प्रकाशित हुई।
इस साहित्यिक यात्रा के दौरान देश के कुछ शहरों में जाने का अवसर मिला जिसका फायदा ये हुआ कि नई-नई जगह देखने को मिलीं। बहुत लोगों से परिचय हुआ। उनको जानने का, समझने का और सीखने का मौका मिला। अनेकों वरिष्ठ साहित्यकारों का सान्निध्य मिला, उनको सुनने का लाभ प्राप्त हुआ। अब तक अनेकों सम्मानों से (लगभग 60) नवाज़ी गयी हूँ और 48 साझा काव्य, कहानी, लेख, लघु कथा संग्रहों में मेरी रचनाएँ प्रकाशित हुईं हैं।
देहली के इंडिया बुक ऑफ रिकार्ड्स से सम्मानित ‘ट्रू मीडिया’ पत्रिका के संस्थापक व मुख्य संपादक ‘श्री ओमप्रकाश प्रजापति” जी ने मुझसे संपर्क किया और मुझे लेकर एक विशेषांक निकालने की योजना बताई। मैं उत्साहित हो गयी क्योंकि ये विशेषांक निकलना कोई छोटी बात नहीं है। जो बड़े-बड़े साहित्यकारों को प्रकाशित करते हैं उन्होंने मुझे चुना ये सोचकर ही मैं रोमांचित थी। दिसंबर 2017 में ये विशेषांक प्रकाशित हुआ जिससे बहुत प्रसिद्धि मिली।
इस यात्रा को आगे बढ़ाते हुए बताना चाहूँगी कि 2018 में अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर इलाहाबाद (यू.पी.) की पंजीकृत ‘गुफ्तगू’ संस्था द्वारा महिला विशेषांक में मेरा 30 पृष्ठ का परिशिष्ट निकाला गया जिसमें मेरे परिचय के साथ कई रचनाएं भी प्रकाशित हुईं और जब वहाँ मुझे “सुभद्रा कुमारी चौहान सम्मान” से सम्मानित किया गया तो सचमुच अपनी लेखनी पर गर्व महसूस हुआ।
तीन एकल पुस्तकों के बाद लघु पुस्तिकाओं का दौर आया और सन 2018 व 2019 में मेरी सोलह व बत्तीस पृष्ठ की आठ पुस्तकें प्रकाशित हुईं। इस प्रकार कई समूहों द्वारा सम्मानित होती हुई और कई पुस्तकों में जुड़ती हुई मेरी इस साहित्यिक यात्रा ने मुझे मान सम्मान के साथ एक ऐसा मंच दिया जिससे ये यात्रा अनवरत चलने वाली यात्रा बन गयी जो अभी भी जारी है। भले ही 2019 में साहित्य के लिए मुझे “लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड” मिल गया है और साहित्य के लिए दिए मेरे योगदान को देखते हुए विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ, भागलपुर से मुझे “विद्यावाचस्पति” और “विद्यासागर” की मानद उपाधि प्रदान की गई है किंतु मेरी लेखनी को यह विराम नहीं बल्कि नया आयाम मिला है। मैं नित नया लिखूँ यही मेरी अभिलाषा है।
मेरी इस अनवरत यात्रा का उद्देश्य स्वान्तः सुखाय तो है ही क्योंकि इससे मेरी आत्मा तृप्त हो जाती है, किन्तु ये भी सच है कि कलम में बहुत ताक़त होती है। ये सामाजिक परिवर्तन का माध्यम बनता है। क़लम यदि दिलों को एक कर सकती है तो तलवारें भी चलवा सकती है, यदि नफ़रत के बीज बो सकती है तो विनम्रता से दिलों को जीत भी सकती है। वर्तमान पीढ़ी को कहना चाहूंगी कि साहित्य समाज का दर्पण है अतः सभी लेखक अपनी लेखनी से समाज को नया सवेरा दें, एक नयी दिशा दें और एक उज्ज्वल साहित्य समाज के सामने लाएं। इसी सोच को आगे ले जाने की दृष्टि से मैंने अपने साहित्यिक समूह “काव्य मञ्जरी” के साझा संकलन के संपादन व लोकार्पण का कार्यभार अपने कांधे पर लिया है और सम्मिलित रचनाकारों के सहयोग से इस कार्य को शीघ्र ही पूर्ण करने वाली हूँ।
अपनी कथा लिखते हुए अंत में मैं अपने स्वभाव, अपनी प्रेरणा, अपनी रुचि और अपने मन की बात बताना चाहूँगी। मैं बचपन से ही पढ़ने में मेधावी थी और मुझे पढ़ना अच्छा भी लगता था उसका मुख्य कारण ये था कि हमारे पिता बहुत अनुशासन के पक्के थे।
अपने खाली समय का सदुपयोग मैं तबला बजाकर करती हूँ, जिसकी शिक्षा मैंने 15 वर्ष की आयु में ली थी। ये मेरी थकान हटाकर चिंतामुक्त कर देता है।
मैं बचपन से बहुत भावुक हूँ। किसी का दर्द देख रो देना और खुशी में बहुत खुश हो जाना मेरे स्वभाव में शामिल है। आजकल सेवानिवृत्ति के बाद लेखन के अतिरिक्त घर पर कन्याओं को शिक्षित भी करती हूँ। कड़ी मेहनत, सच्ची लगन और अनुशासन ही मेरी पूँजी है, साहित्य सेवा द्वारा समाज में जागरूकता लाना, आत्म संतुष्टि के लिये लिखना, स्त्री को शिक्षित करना ही मेरा सपना है और सादगी ही मेरा जीवन है। मेरे माता-पिता और बड़े भाई मेरी प्रेरणा रहे किन्तु जीवन में आगे बढ़ते हुए मन में कुछ ऐसा आया जिसने मुझे नई ऊर्जा दी और सकारात्मकता के साथ मुझे आगे बढ़ने को प्रेरित किया। ये स्वरचित पंक्तियाँ ही अब मेरा सम्बल हैं जिसके कारण बिना रुके व बिना डरे मैं आगे बढ़ती ही जा रही हूँ।
“न छीन पाओगे कभी, बेवजह ये पहल है
ये ईंटों का नहीं, मेरे ख़्वाबों का महल है।”
डॉ नीरजा मेहता ‘कमलिनी’