एक निमंत्रण मानसून को
आसमान मे तक,
श्याम बादलोँ को,
दे दिया उन्हें नेह निमंत्रण।
आ मानसून आ,
बहा ले जा अपने साथ,
पिशाचिनी कोरोना को।
जिसने कितनी माँओं से
उनके बच्चें छीने,
और कितने बच्चों से छिना,
उनके पिता का दुलार।
जिसके कुचक्र में फँसकर
कराह रही हेै आदमजात।
आ मानसून आ,
बहा ले जा अपने साथ।
कैसी है यह विपदा ,
जिसने निकटता पर जड़ा ताला।
कई घरों के चूल्हे बुझाकर भी,
नहीं तृप्त हो रही जिसकी क्षुधा।
लाशों के ढेर पर भी,
नर्तन कर रही जो संग काल।
आ मानसून आ,
बहा ले जा अपने साथ।
फिर से खेतों में फसले झूमें,
मशीनों की घरघराहट में,
आओ फिर से सपने बुनें।
बाजारों में हो फिर,
वही चहल -पहल।
गालियाँ -चौबारे न हो सूने।
फिर से बूढ़े काका की चौपाल सजा।
आ मानसून आ,
बहा ले जा अपने साथ।
रीता रानी
जमशेदपुर, झारखंड