उजालों की ओर

उजालों की ओर

सृष्टि के अविरल प्रवाह की वात्सल्य धारा में अवगाहन करता मनुष्य और उसके भावसुमनो के मुस्कान स्रोत से नि:सृत समाज के मन की कल्पना है आठ मार्च “अंर्तराष्ट्रीय महिला दिवस”।

स्तम्भित होती हूं जो महिला प्रत्येक पल प्रणम्य है उसके लिये ३६५ दिन में एक दिन ? “मातानिर्माता भवति” नारी तो सृष्टा हैं निर्माता है,फिर स्त्री हो या पुरुष यह मानव समाज और उसके संवेग सभी कुछ महिला के अन्तर्मन की म निर्मिति ही तो है,वहीं समाज, राष्ट्र और विश्व की अधिष्ठात्री है,तो क्यों न हो महिला दिवस का आयोजन।कभी तो समर्पित हों कृतज्ञता की अञ्जली उसके प्रति।किन्तु कहीं न कहीं इस समाज के अहंमन्यता को यह भी आभास होता होगा कि कभी न कभी हमने अपनी जननी की अवहेलना की है,कभी न कभी पत्नी को अपमानित किया है,किसी न किसी बेटी स्वरूपा का शोषण किया है, किसी ने इनके साथ दुराचार किया है, शायद महिला दिवस के रूप में यह समायोजन उनकी क्षमा याचना का का रूप हो।विषाद की सघनता ने नारी को कभी शिला बना दिया,तरलवेदना का कभी न थमने वाला प्रवाह बना दिया और कभी उसे प्रतिशोध की आग से भर दिया। कहीं वह पूज्या बनी तो कहीं मात्र भोग्या बनी रही किन्तु वह सरल सहज इन्सान होकर जीने की कामना करती रही। बहुत हुआ” यत्र नार्यस्तु पूज्यन्त रमन्ते तत्र देवता:”।नारी तो स्वयं देवता हैं निरन्तर देने वाली दिव्य चेतना।

यूं चाहे १९०८ में न्यूयॉर्क शहर की श्रमिक महिलाओं द्वारा वेतन वृद्धि, मतदान अधिकार और कार्यावधि में कमी की मांग को लेकर किया गया आन्दोलन हो या १९१० में कोपेनहेगन में अन्तर्राष्ट्रीय महिला कोन्फ्रेन्स हो अथवा १९७५ में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा “आठ मार्च अंर्तराष्ट्रीय महिला दिवस” की आधिकारिक उद्घोषणा की गई हो किन्तु यदि जन्मदात्री जिसके लिये भारतीय मनीषा ने “जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” को यथोचित सम्मान नहीं मिलता,गृहप्रबन्धन की निपुण संचालिका को श्रद्धावनत श्रेय नहीं मिलता,बहन बेटी को उनका अधिकार नहीं मिलता तो महिला दिवस मनाने का क्या प्रयोजन? यह दिवस वर्ष में एक बार ही मनाते जाने वाला पर्व नहीं अपितु अपनी विनम्र भावनाओं से पूरित अञ्जली अर्पित करने की निरन्तर आभार प्रक्रिया है।विभिन्न आयोजनों की रंग-बिरंगी अभिव्यक्ति का त्यौहार है महिला दिवस जिससे नारी और अधिक ऊर्जस्वित होकर गतिशील होती है।

भारतीय वैदिक वाङ्मय इसके अपरिमित वैदुष्य का विश्वास दिलाता है और इसका परिशीलन इसके उदार उन्नयन का उद्बोधनस्वर बनता है।वैदिक युग अनुशंसित करता है नारी की अनेक मंगल धारायें जिनसे पुष्ट होती रही उसकी सनातन जीवन शैली। घूंघट की परम्परा वैदिक नहीं है और न ही पुरुष-समाज के मन से उद्भूत कोई आरोपित बन्धन शृंखला। यहां तो नारी की चारित्रिक पावनी प्रभा है और है आचरण की दिव्यता। वैदिक कालीन महिला कुशल प्रबन्धक की महिमा से मण्डित हैं। यजुर्वेद में बार बार प्रार्थना की गई है कि सच्चरितविदुषियां सबकी रक्षा करें।

या नासत्या सुपेषसा हिरण्यवर्तिनी नय
सरस्वती द्रविष्मतीन्द्र कर्मसु नो$वत।।
यजुर्वेद ७४/२०

वैदिक आलोक केवल ऋषियों का ही तप नहीं है ऋषिकाओं ने भी अपनी ज्योतियां बिखेरी हैं।अनेकश: अनेक विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित किया है।तत्कालीन नारियां स्वयं सिद्धा थीं।गार्गी,अपाला,मैत्रेयी आदि ज्ञानदीप्तियों से कौन परिचित नहीं हैं।वैदिक युग मे न तो सती प्रथा थी और न ही स्त्रियां अशिक्षित थीं।स्त्री पुरुष दोनों ही समान रूप से गतिशील होकर “सह नाववतु सह नौ भुनक्तु” की प्रणाली से “सर्वे भवन्तु सुखिन:”चरितार्थ करते थे।पुत्र और पुत्री में अभेद था।वस्तुत: दोनों के लिये “प्रजा”( सन्तान)शब्द का ही प्रयोग हुआ है।विवाह के सन्दर्भ में महिलाएं पूर्णतः स्वतन्त्र थी,जो कन्यायें विवाह करतीं थीं वे गृहस्थी संभालती थी।खेती-बाड़ी और पशुपालन में पुरुष के साथ हाथ बंटाती थी । सामाजिक रीति रिवाजों का निर्वाह करती थीं।जो कन्यायें विवाह नहीं करती थीं वे कन्या गुरुकुल का दायित्व लेकर कन्याओं को योग्य बनाती थीं,तपस्या करती थीं ऋषिकायें बनती थीं।

इसी प्रकार रामायण महाभारत के स्त्री पात्रों के चरित्रों का परिशीलन करें तो वहां भी नारी प्रत्येक दृष्टि से समुन्नत, प्रतिष्ठित और सम्मानित थी।अस्त्र शस्त्र में पारंगत थी। राजकार्यों में अथवा राजवार्ताओं में भाग लेती थीं।सीता के शिव धनुष को उठाने की बात सब जानते हैं। कन्याओं की विद्वता और वीरता को देखकर ही स्वयंवर रचा जाता था।विदेह राजा जनक का राजकार्य उनकी पत्नी सुनयना के सहयोग से संचालित था। युद्धभूमि मे रानी कैकयी के दर्शन होते हैं।इस काल में अनेक वीर मातायें और वीर पत्नियों के संकेत हैं।

तब ऐसा क्या हुआ कि सोलहवीं शताब्दी के आते आते भारतीय महिलाओं की स्थिति इतनी दयनीय हो गई?सच्चाई यह है कि हुणों,शकों,मुगलों,अंग्रेज़ों के आक्रमणों तथा तत्कालीन हिन्दू राजाओं के परस्पर वैमनस्य के कारण उद्भूत पराधीनता को झेलते हुए ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो गयीं कि औरतों को घर की चारदीवारों में कैद होना पड़ा।आत्मरक्षा की दृष्टि से खुद को पूरी तरह से ढक कर बाहर निकलना विवशता हो गई।धीरे धीरे स्थितियां जब कुछ अनुकूल होने लगी तो वैदिक मंत्रों की गलत व्याख्यायें प्रस्तुत कर तथाकथित ब्राह्मणों ने मनमानी आरम्भ कर दी। शूद्रों और स्त्रियों को अछूत करार दिया।उनके पढ़ने लिखने पर पाबन्दी लगा दी।अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए शूद्रों और स्त्रियों को सताया जाने लगा। मुगलकाल में जो पर्दा अनिवार्यतः आवश्यक था उस विवशता को उन्होंने घूंघट की प्रथा बना दी और स्त्री बेचारी बन गई। पुरुषों के स्वामित्व को स्वीकार करने के अतिरिक्त उसके पास कोई विकल्प नहीं था।

 

दीर्घकाल तक वह घने अंधेरे में कष्ट सहते हुए डरी सहमी रही।ये अन्धरी रात लम्बी अवश्य थी किन्तु शनै शनै इनके जीवन की भी सुबह खिलने लगी,उजाला फैलने लगा।कुछ समाज सुधारकों का अवतरण हुआ। उन्होंने महिलाओं की दयनीय स्थिति देख उनमें शिक्षा ग्रहण करने की रुचि जगाने और समाज को इस दिशा में प्रेरित करने का बीड़ा उठाया।इन समाज सुधारकों में आदरणीय ईश्वर चन्द्र विद्यासागर एवं दयानन्द सरस्वती प्रमुख रूप से वन्दनीय हैं।इतना ही नहीं सम्पूर्ण समाज के लिए शिक्षा अनिवार्य है इस दृष्टि से भी उन्होंने लोगों को पढ़ने के लिए प्रेरित किया।दहेज प्रथा ,पर्दा प्रथा जैसी कुरीतियों का विरोध किया।इसके बाद से ही महिला सशक्तिकरण आन्दोलन की भी नींव पड़ी।अनेक नेता महिला सशक्तिकरण अथवा नारी विमर्श को अपने भाषण का विषय बनाने लगे।अनेक कविताओं में वह गूंजने लगी। ध्रुवस्वामिनी जैसे नाटकों के स्त्री पात्र सशक्त होने लगे।उपन्यासों में वह जाग्रत हो गई।कवियों के द्वारा वह ब्रह्मा,विष्णु,महेश स्वरूपा आराध्या हो गई। जीवन की प्रेरणा नारी स्वयं बनने लगी।डा० नगेन्द्र की ये पंक्तियां उदाहरण बन गई:-

“सुधा अधर में,विष आंखों में
आंचल में पयस्विनी धार।
देखा इस छोटे से तन में
जग ने सृजन भरण संहार।।”

इसी प्रकार महादेवी वर्मा नारी को “सत्यम् शिवम् सुन्दरम्” कहती हुई लिखती हैं:-

“मां का रूप ही सत्य है,वात्सल्य ही शिव है और ममता ही सुन्दर है।”

अनेक चिंतकों, विचारकों और स्वयं अपने प्रयत्नों से भी नारी समृद्ध हुई है।भावात्मक रूप से पुष्ट भी हुई है।उसकी जाग्रत चेतना से परिचित कराते हुए मुंशी प्रेमचंद जी कहते हैं:-

“नारी परीक्षा नहीं प्रेम चाहती है।परीक्षा गुणों को अवगुण और सुन्दर को असुन्दर बनाने वाली चीज़ है।प्रेम अवगुणों को गुण और असुन्दर को सुन्दर बनाता है।”

 

शिक्षा का अभाव,दहेज प्रथा ,भ्रूण हत्या,घरेलू हिंसा जैसी विडम्बनाएं नारी को अन्दर तक बेंधती रही आगे की राह अदृश्य सी होती गई किन्तु बीसवीं सदी के साठ सत्तरवें दशक से स्त्री की तनिक आंखें खुली ।उसने स्वयं को आंकना आरंभ किया।शिक्षा के क्षेत्र में स्वछन्दता से उसका पदार्पण होने लगा,।आर्थिक रूप से स्वाधीन नारी ने न केवल स्वयं को अपितु अन्य नारियों को भी आकर्षित करना आरम्भ किया। उन्नति के मार्ग खुलने लगे।आर्थिक स्वाधीनता ने वह पुरुषों के बलात् बन्धनो से मुक्त होने लगी। व्याख्यानों, कविताओं, कथा-कहानियों,नाटकों आदि की नायिकाएं समृद्ध होने लगी।अनेक समारोह केवल महिलाओं के लिये ही आयोजित होने लगे।जीवन के सभी क्षेत्रों में अपने परचम लहराने लगी।आज राजनेत्रियों, वैज्ञानिकों, साहित्यकारों, कलाकारों के रूप में प्रतिष्ठित होती नारी शिक्षण संस्थानों , उद्योगों, बैंकों,नये अनुसंधानों,अन्तरिक्ष परियोजनाओं सभी में अपना सक्रिय योगदान दे रही है।आज की महिलाएं अपनी रिद्धि सिद्धि के साथ अपने घर को ,समाज को और राष्ट्र को विकास के पथ पर ऊर्ध्वमुखी बना रही है।अन्तरिक्ष मे उड़ान भरने वाली कल्पना चावला अथवा सुनीता विलियम जैसी प्रबुद्ध अन्वेषिकाओं को कौन नहीं जानता। इन्द्रा नूरी जैसी भारतीय महिला अमेरीकिन कम्पनी पेप्सी के सी ओ पद को प्रतिष्ठित कर चुकी है।पर्वतारोहिणी बछेन्द्री पाल, प्रेमलता कितने ही पुरुषों को मात दे रही हैं। प्रतिभा पाटिल जैसी प्रतिभा देश की राष्ट्र पति बनकर गौरवपूर्ण इतिहास रच रही हैं। इस समृद्धि में भारत के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के “”बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ”” नारे ने चार-चांद लगा दिये।आज ऐसा कोई कार्य नहीं जो लड़कियां नहीं कर सकती,पर ऐसे बहुत से काम है जिन्हें लड़के नहीं कर सकते।इन सबके साथ घर सम्भालना तो उसे ही आता है और वह बख़ूबी सम्भालती भी है।
इतने पर भी देश-विदेश के अभी भी कुछ क्षेत्र हैं नारी के विकास का सूरज नहीं उगा। जहां स्त्रियां अशिक्षित और प्रताड़ित हैं। अशिक्षा और अन्धविश्वास की शिकार होकर “डायन ” समझ ली जाती हैं और सामाजिक हिंसा को भोग रही हैं।चलिए ,ऐसी महिलाओं के मन तक पहुंचने का प्रयास करें और उन्हें अन्धेरों से हटाकर उजालों की ओर ले चलें।

 

डॉ रागिनी भूषण
वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद
जमशेदपुर, झारखंड

0
0 0 votes
Article Rating
961 Comments
Inline Feedbacks
View all comments