अब दिखे न कोई राहों पर

अब दिखे न कोई राहों पर

है दिन दुपहरी यूँ सन्नाटा
करती हैं सड़कें साँय साँय
प्रकोप भारी कोरोना का
अब दिखे न कोई राहों पर।

मिल न सके अपनों से अपने
विडंबना ऐसी विधना की
पंख झरे मुरझाये सपने
पलकें उनींदी कल्पना की

लगी दरों पर लक्ष्मण रेखा,
हर गली गली चौराहों पर।

ये दुनिया जो वीरान हुई
मानव का ही किया धरा है
जब गिरी नियत हैवान हुई
भीतर का इंसान मरा है

भर चीखें जब उठती ज्वाला,
है दिल रोता उन आहों पर ।

सृजनकार है स्वयं अचंभित
मनु के इस पाप अतिरेक से
कर्तव्यविमूढ़ होकर किंचित
है पद भ्रमित क्यों विवेक से

सृष्टि को संकेत है शायद,
विचारें अपने गुनाहों पर।

परम पिता ही पार लगाये
डगमग होती जीवन नइया
माँझी बन पतवार चलाये
सबसे बड़ा वही खेवइया

अविनाशी है ईश स्वयंभू,
भला पहुँचा कौन थाहों पर।

प्रेम विलय हो चित में सबके
निर्मल निश्छल उच्छवास रहे
ड्योढ़ी ड्योढ़ी प्रति प्रांगण मे
मानवता का ही वास रहे

करूँ प्रार्थना ईश्वर से मैं,
हो पथ मनु का सद् राहों पर।

सवार प्रभाकर रश्मि रथ पर
निकल पड़ा अनुकूल दिशा में
अटल है विश्वास ये मेरा
श्वांस भरेगा जगत उषा में

लहरायेगी विजय पताका,
सभी करें अमल सलाहों पर।

सुनीता अभय
लेखिका
वाराणसी, उत्तर प्रदेश

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