सिनेमा में होली उत्सवप्रियता का प्रतीक
कालिदास के अनुसार मनुष्य मात्र उत्सवप्रिय होता है। उन्होंने शताब्दियों पूर्व कहा था, ‘उत्सवप्रिया: हि मानवा:’।
अधिकाँश उत्सव कृषि से जुड़े हैं। जब फ़सल लहलहा रही होती है, फ़सल कट कर आती है तो किसान अपनी मेहनत का फ़ल देख कर झूम उठता है, खुशी से नाचने-गाने लगता है। पूजा-अर्चना कर प्रकृति के प्रति अपनी कृतज्ञता अर्पित करता है। नवान्न, नव परिधान, नव उल्लास से परिवार जनों, मित्रों, नाते-रिश्तेदारों और पड़ौसियों का स्वागत करता है। अगर कोई अजनबी आ जाता है, तो उसे भी अपनी खुशी में शामिल कर लेता है। मिल-बाँट कर खाता-खिलाता है। समावेशी परिवार-समाज आज भी देखने को मिलते हैं। उत्सव के अवसर पर मनुष्य का हृदय विस्तृत हो जाता है। वह परायों को भी अपना लेता है, जिनसे किसी बात पर मनमुटाव हुआ था, उनसे भी प्रेम से मिलता है और पुरानी बातें भुला कर उन्हें गले लगाता है।
होली ऐसा ही उत्सव है, उत्तर भारत में इस समय फ़सल कट कर आ चुकी होती है। कृषक अपने परिश्रम के फ़ल को देख कर फ़ूला नहीं समाता है, उसका हृदय झूम उठता है। ऐसे समय में होली का त्योहार मनाया जाता है। थोड़े अलग रूप में यह त्योहार विश्व के कई अन्य देशों में मनाया जाता है। कहीं यह टमाटर उत्सव है, तो कहीं होली फ़ूलों से खेली जाती है। उत्तर भारत में यह रंगों का त्योहार है। सूखे और गीले दोनों रंगों का। एक समय केवल प्राकृतिक रंगों का प्रयोग होता था। पारिजात के फ़ूलों की डंडी का रस, निकाल कर रंग बनाया जाता था। इस रंग में रंगीनी के साथ-साथ खुशबू भी होती है। चंदन, टेसू के फूलों, गुलाबजल से भी रंग बनाए जाते थे। परिवर्तित समय के साथ कृत्रिम रंगों के प्रयोग होते रहे। रासायनिक रंगों के कुप्रभाव को देखते हुए अब फ़िर से लोग प्राकृतिक रंगों की ओर लौटने लगे हैं। होली उत्तर भारत का एक बहुत प्राचीन त्योहार है। इसके प्रमाण हमें साहित्य, संगीत, नृत्य, चित्रकला में मिलते हैं। संस्कृत साहित्य और कथक नृत्य में होली के पर्याप्त संदर्भ मिलते हैं। जब सिनेमा का आविर्भाव हुआ तो सिनेमा में भी भरपूर होली दृश्य चित्रित होने लगे। एक लंबे समय से भारत में राधा-कृष्ण होली के आलंबन रहे हैं। फ़िल्मों में नायक-नायिका पर होली के गीत फ़िल्माए जाते हैं। होली में गिले-शिकवे भुला कर लोग आपस में मिलते हैं। आबाल-वृद्ध संकोच छोड़ कर ढोल, मंजीरा, झाँझ ले नाचने-गाने लगते हैं। चारो ओर मस्ती छा जाती है, रंग उड़ने लगते हैं।
सिनेमा में होली की बात उठते कई गीतात्मक दृश्य आँखों के सामने कौंध जाते हैं। होली को फ़ाग या फ़गुआ भी कहते हैं, क्योंकि यह फ़ागुन माह में खेली जाती है। और इसी ‘फ़ागुन’ नाम से हिन्दी में एक फ़िल्म बनी है। 1958 में बनी इस फ़िल्म में मधुबाला, भारत भूषण ने मुख्य भूमिकाएँ की हैं। साथ में जीवन, कुक्कू, महमूद, धूमल ने भी काम किया है। मगर यहाँ होली सिर्फ़ नाम तक ही सीमित है। इस फ़िल्म में होली से जुड़ा कोई गाना नहीं है। लेकिन कमर जलालाबादी का लिखा और आशा भोंसले का गाया गीत, ‘पिया पिया न लागे मोरा जीया, आजा चोरी चोरी, ये बैंया गोरी गोरी’ आज भी लोग गुनगुनाते हैं। ओ. पी. नय्यर के संगीत का जादू है ही ऐसा। ‘होली आई रे’ नाम से भी एक फिल्म बनी है। यहाँ होली सिर्फ़ नाम तक सीमित नहीं है। इस फ़िल्म में एक गीत ‘होली आई रे…’ भी होली के नाम है, माला सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा के साथ यहाँ बलराज साहनी और राजेंद्रनाथ भी हैं।
हालाँकि सिनेमा में होली की बात होते समय कोई इसे याद नहीं करता है। लोग याद करते हैं, ‘होली आई रे कन्हाई…’ गीत को। क्लासिक फ़िल्म ‘मदर इंडिया’ का यह होली गीत राग-रंग का उत्सव है, जिसमें फ़्लैशबैक का भी प्रयोग हुआ है। इस होली में पूरा गाँव सम्मिलित है, जैसा कि एक समय हुआ करता था। सुनिल दत्त, नर्गिस, राजकुमार, राजेंद्र कुमार पर फ़िल्माया यह गीत सामूहिक गान है। ‘मदर इंडिया’ का ‘होली आईरे कन्हाई…’ शमशाद बेगम का गाया होली गीत आज भी होली के अवसर पर सुनाई देता है। लोकप्रियता की मिशाल है यह गीत। अभिनेताओं के चेहरे पर आते-जाते भाव उनकी चारित्रिक विशेषताओं को भी प्रकट करते चलते हैं, मसलन सुनील दत्त का गुस्सा।
हिन्दी सिनेमा और होली का बड़ा करीबी रिश्ता रहा है। होली के पीछे प्रहलाद और होलिका की पौराणिक कथा जुड़ी हुई है जो बुराई पर अच्छाई की जीत दिखाती है। हिन्दी में बहुत पहले ‘भक्त प्रहलाद’ नाम से एक फ़िल्म बनी है। मगर हमारी फ़िल्मों में होली की इस पृष्ठभूमि को शायद ही कभी महत्व दिया जाता है, हिन्दी फ़िल्मों में होली मात्र नाचने-गाने तक ही सिमटी रहती है। इसीलिए यहाँ धार्मिक अथवा पौराणिक संदर्भ को महत्व नहीं दिया जाता रहा है। इसी तरह गुजिया, दही बड़े, काँजी बड़े, पूए होली के त्योहार से जुड़े पकवान हैं। मगर फ़िल्मों में मुझे अभी तक ये पकवान दिखाई नहीं दिए हैं। अधिकाँशत: सिनेमा में होली का सीक्वेंस मात्र मनोरंजन का हिस्सा ही होता है। जहाँ राग-रंग होता है, हँसी-मजाक होता है, नाचना-गाना होता है। हाँ, कुछ फ़िल्मों में होली नायिका की श्वेत, रंगहीन दुनिया में रंग भरने का प्रयास अवश्य करती नजर आती है। पिछली सदी के सातवें दशक में गुलशन नंदा के उपन्यास पर आधारित फ़िल्म ‘कटी पतंग’ में नायिका आशा पारेख विधवा स्त्री है। जाहिर-सी बात है, सामाजिक नियम के अनुसार यह माधवी नामक चरित्र होली नहीं खेल सकता है, मगर निर्देशक शक्ति सामंत होली के रंगारंग मौके पर इस सामाजिक निषेध को तोड़ते हैं। नायक कमल (राजेश खन्ना) इस अवसर पर ‘आज न छोड़ेंगे हम हमजोली…’ गाते हुए नायिका को रंगों से सराबोर कर देता है। नायिका के बेरंग जीवन में रंग बिखेर देता है। आनंद बक्शी के लिखे इस गीत को संगीत दिया है, आर डी बर्मन ने।
ठीक यही जोड़ी (आर डी बर्मन और आनंद बक्शी) ‘शोले’ फ़िल्म के होली गीत के वक्त भी हैं। मगर कहानी बदल गई है। धर्मेंद्र अपनी प्रेयसी बसंती (हेमा मालिनी) के साथ मौज-मस्ती कर रहे हैं, ‘रंगों में रंग मिल जाते हैं…’ गा-नाच रहे हैं। गाँव में होली के अवसर पर मेला लगा हुआ है। पूरा गाँव नाच-गा रहा है, रंग-गुलाल खेल रहा है, चारो ओर अबीर-गुलाल उड़ रहा है। लोग आते हैं और खींच कर अमिताभ को भी इस समारोह में शामिल कर लेते हैं। अमिताभ ठुमका लगाने लगता है कि तभी उसकी निगाह गुमसुम खड़ी ठाकुर की विधवा बहु जया भादुड़ी पर पड़ती है और उसके कदम वहीं थम जाते हैं, जम जाते हैं। थम जाते हैं, जम जाते हैं क्योंकि उसके मन में जया के लिए सहानुभूति है, शायद प्रेम भी। वह रुक गया है, जया भादुड़ी विधवा ठहरी और सफ़ेद कपड़ों में है, सामाजिक रूप से होली उसके लिए निषिद्ध है। फ़्रेम में जड़ी जया प्रतीक है सामाजिक जकड़न में बँधी स्त्री का।
किशोर-लता-समूह का गाया ‘शोले’ (1975) फ़िल्म का यह गीत बिल्कुल भिन्न सिचुएशन रचता है। यहाँ किसी सामाजिक वर्जना तोड़ना नहीं वरन होली की मस्ती में बेखबर झूमते गाँव का फ़ायदा उठाते डाकुओं को रेखांकित करना निर्देशक का उद्देश्य है। डाकू होली के रंग में भंग डाल देते हैं। वातावरण दहशत से भर उठता है। जिस तनाव को कम करने के लिए यह होली दृश्य रखा गया था वही तनाव फ़िर से तारी हो जाता है। ‘फ़ूल और पत्थर’ फ़िल्म में भी समाज की प्रतिक्रिया का भय शामिल है। इसमें नायक धर्मेंद्र विधवा मीना कुमारी को ले कर अपनी विभिन्न भावनाओं को प्रदर्शित करता है और गीत है, ‘लाई है हजारों रंग होली…’। ये तीनों होली गीत तीन भिन्न स्थितियों को प्रदर्शित करते हैं। तीनों फ़िल्म में नायिका विधवा है, नायक उसे मन-ही-मन चाहता है पर तीनों की अभिव्यक्ति बहुत भिन्न है।
प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक यश चोपड़ा अपनी फ़िल्मों में होली दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं। वे ‘मशाल’ में किशोर कुमार-लता मंगेशकर के गाए गीत ‘होली आई होली आई देखो होली आई रे’ का प्रयोग करते हैं। यहाँ अनिल कपूर और रति अग्निहोत्री की नोंक-झोंक के साथ उनके प्रेम को खिलने का अवसर मिलता है।
यश चोपड़ा ने अपनी फिल्मों में बार-बार होली मोटिफ का उपयोग किया है। लेकिन उनकी फ़िल्म ‘डर’ में होली गीत बिल्कुल अलग संदर्भ में फ़िल्माया गया है। यहाँ यश चोपड़ा अपनी फ़िल्म में रहस्य-रोमांच की सृष्टि करते हैं। गीत ‘अंग से अंग लगाना सजन मोहे ऐसे रंग लगाना…’ की शुरुआत विजय (अनुपम खेर) के ढ़प्प बजाने से होती है और गाना प्रारंभ करती है उसकी पत्नी पूनम (तन्वी आज़मी)। थोड़ी देर बाद इस राग-रंग में नायिका किरण (जूही चावला) और सुनील (सनी देओल) भी शामिल हो जाते हैं। 1993 में बनी फ़िल्म ‘डर’ फ़िल्म के इस होली गीत को विनोद राठौर, अलका याज्ञ्निक ने गाया है, आनंद बक्शी के बोलों को शिव कुमार शर्मा ने संगीत से सजाया है।
सब नाच-गा रहे हैं, इसी बीच ढ़ोल बजाता हुआ और ‘रंग बरसे भीगे चुनर वाली…’ गाता हुआ जुनूनी प्रेमी नायक राहुल मेहरा (शाहरुख खान) दृश्य में प्रवेश करता है। साइकॉलॉजिकल फ़िल्म ‘डर’ की इस नकारात्मक भूमिका को शाहरुख खान से पहले कई अभिनेताओं ने नकार दिया था। ढ़ोलक नुमा ढ़ोल वह पागलपन के साथ बजाता जाता है, उसके साथी ढ़प्प बजा रहे हैं। काफ़ी देर ढ़ोलक, ढ़ोल, ढ़प्प, मंजीरा की जुगलबंदी चलती है। जूही और सनी देओल की छेड़छाड़ से शाहरुख खान की ईर्ष्याग्नि भड़कती जाती है। रंग पुते चेहरे में किसी को पहचानना मुश्किल है। अंत में जब किरण नेग देने के लिए आती है तो राहुल उसे पकड़ कर अपने दमित प्रेम का इजहार कर देता है। फ़ोन पर वह जो कहा करता था वही वह कहता है, जो काफ़ी प्रसिद्ध वाक्य हो गया था। वाक्य है, ‘आई लव यू कि कि कि किरण’। नायिका के साथ-साथ दर्शक तत्काल होली का राग-रंग भूल कर ‘डर’ की गिरफ़्त में आ जाता है। यहाँ पर ‘डर’ के स्थान पर ‘भय’ शब्द अधिक उपयुक्त होगा। हिन्दी फ़िल्मों में होली का त्योहार पात्रों की भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए उपयोग में लाया जाता है।
गीत-संगीत हिन्दी सिनेमा का एक अभिन्न अंग है, विशिष्ट अंग है। हॉलीवुड सिनेमा ने दुनिया के अधिकाँश सिनेमा को प्रभावित किया लेकिन अपने गीत-संगीत की विशेषता के कारण भी हिन्दी सिनेमा अपनी अलग पहचान बनाने में सक्षम हुआ बल्कि वह हॉलीवुड का विलोम रचता है। गीत-संगीत के बल पर अपने अस्तित्व के तेवर के साथ उसके प्रतिपक्ष में खड़े होने का साहस भी करता है। सर्वप्रभावी संस्कृति के इस मारक दौर में यदि हमारी फ़िल्में अपनी पहचान के साथ मजबूती से खड़ी हैं तो इसका श्रेय इसके गीत-संगीत को भी जाता है। आज स्वतंत्र चिंतन अवरुद्ध है, बल्कि चिंतन ही अवरुद्ध किया जा रहा है, सब कुछ पका-पकाया उपलब्ध कराया जा रहा है, एक संस्कृति विशेष सब पर थोपी जा रही है। ऐसे कठिन-जटिल समय में हमारी फ़िल्में अपनी गीतात्मकता के साथ बिग ब्रदर को ठेंगा दिखाती हुई मस्त है। इसमें होली गीतों का भी हाथ है।
भारत की पहली टेक्निकलर फ़िल्म ‘आन’ का दिलीप कुमार निम्मी पर फ़िल्माया होली गीत ‘खेलो रंग हमारे संग…’ खूब लोकप्रिय हुआ। राज कुमार संतोषी ने अपनी फ़िल्म ‘दामिनी’ में होली का प्रयोग कहानी को एक नया मोड़ देने के लिए किया है। यहाँ गीत-नृत्य नहीं है। मगर एक धनी घर-परिवार में होली का राग-रंग चल रहा है तभी परिवार में नौकरानी का बलात्कार होता है, जिसे बचाने में परिवार की बहु दामिनी (मीनाक्षी शेषाद्री) तथा उसका पति (ऋषि कपूर) नाकामयाब रहते हैं। पूरी फ़िल्म का मूड और उद्देश्य यहाँ से पूरी तरह बदल जाता है।
हिन्दी फ़िल्मों में स्थानीयता का पुट होली गीतों में रेखांकित किया जा सकता है। हमारे यहाँ नौ रस की चर्चा होती है और हिन्दी फ़िल्में नौ रस का मिश्रण होती हैं। नव रस की भिन्न-भिन्न स्थितियों को वी शांताराम ने अपनी एक फ़िल्म ‘नवरंग’ में फ़िल्माया है। उस समय की प्रसिद्ध अभिनेत्री संध्या और महिपाल ने इसमें मुख्य भूमिकाएँ की हैं। इस फ़िल्म का नायक-नायिका पर फ़िल्माया एक होली गीत है, ‘अरे जा रे हट नटखट…’। आशा, भोसले महेंद्र कपूर तथा साथियों के गाए इस होली गीत का पिक्चराइजेशन आज भी लुभाता है। 1959 में बनी इस फ़िल्म के इस गीत के बोल भरत व्यास के हैं और इसका संगीत सी. रामचंद्र ने दिया है। गीत के अंत की ओर अर्धनारीश्वर की प्रतिमा मुखौटे की सहायता से साकार की गई है। नृत्य-गीत भी सेमीक्लासिकल है। नृत्य के देवता शिव पुत्र गणेश का मूर्ति से सजीव हो कर स्वयं नृत्य करने लगना एक विलक्षण लोक की सृष्टि करता है। यह केवल हिन्दी फ़िल्मों में ही संभव है। होली का आलंबन कृष्ण-राधा-गोपियाँ रहे हैं। ‘नवरंग’ में गणेश हैं, तो ‘मदर इंडिया’ के होली गीत में एक विशाल शिव मूर्ति है। वैसे शिव के श्मशान में होली खेलने का वर्णन ‘दिगंबर खेले मसाने में होली’ गीत में मिलता है, जैसे रघुबीरा अवध में होली खेलते नजर आते हैं।
सिनेमा की संप्रेषण शक्ति और लोकप्रियता के कायल प्रेमचंद को फ़िल्मी दुनिया रास न आई। और उनके उपन्यास ‘गोदान’ पर बनी फ़िल्म भी बॉक्स ऑफ़िस पर कुछ सफ़ल न हुई। त्रिलोक जेटली ने 1963 में राजकुमार (होरी), कामिनी कौशल (धनिया), महमूद (गोबर), शोभा खोटे, शशिकला, मदन पुरी आदि को ले कर ‘गोदान’ फ़िल्म बनाई। विश्वप्रसिद्ध सितारवादक रविशंकर ने इस फ़िल्म का संगीत बनाया। रविशंकार ने मात्र तीन हिन्दी फ़िल्म का संगीत रचा है, ‘गोदान’ उसमें से एक है। इसका होली गीत आज भी लोकप्रिय है। इस श्वेत-श्याम फ़िल्म का होली गीत अनजान ने लिखा है और इसे महमूद और उसके साथियों के ऊपर फ़िल्माया गया है। फ़िल्म में महमूद यानि गोबर परदेसी है और साल के त्योहार होली पर अपने घर-परिवार में लौट रहा है, बसंत का मौसम है, अत: उसके मन में उल्लास है। इसका होली गीत पारम्परिक ढ़ंग से प्रारंभ होता है, बोल हैं, ‘जोगीरा सारा रा रा… होली खेलत नंदलाल बृज में…’। उत्तर भारत के बहुत सारे लोग बाहर काम करते हैं और साल में एक बार होली पर अपने घर-परिवार में लौटते हैं। ऐसे हजारों दर्शक इस गीत से तादात्म अनुभव करते हैं।
इस होली गीत को मोहम्मद रफ़ी तथा साथियों ने गाया है। यहाँ होली के पारम्परिक प्रतीकों का प्रयोग हुआ है। गोबर पिचकारी का बाँसुरी के रूप में भी प्रयोग करता है। साथ में ढोलक, ढप्प, झाँझ मंजीरा, तबला तो हैं ही। फ़िल्म ‘गोदान’ का यह होली गीत आज भी होली के मौसम में गाया-सुना जाता है। इसमें शास्त्रीयता और लोक का अद्भुत संगम है। सिने-संगीत पर केंद्रित अपनी किताब ‘धुनों की यात्रा’ में पंकज राग लिखते हैं, ‘गोदान’ (1963) में प्रेमचंद के अमर उपन्यास की कथाभूमि को अवधी और पूरबी लोकसंगीत का इतना सुंदर स्पर्श रविशंकर ने दिया कि फ़िल्म की असफ़लता के बावजूद गीत बहुत लोकप्रिय रहे।…रविशंकर ग्रामीण-संगीत के हर रूप में माधुर्य ही माधुर्य बिखेर रहे थे।’
होली के अवसर पर श्वेत वस्त्रों का चलन है, क्योंकि सफ़ेद कपड़ों पर रंग खिल कर दीखते हैं। इसी तरह होली और भाँग-ठंडाई का चोली-दामन का साथ है। होली वाले दिन भाँग-ठंडाई पीने का पुराना रिवाज है। फ़िल्मकारों ने भी इसका लाभ उठाया और नायक की दबी-छुपी भावनाओं को भाँग के नशे में खुल कर व्यक्त करवाया। इसी भाँग के नशे में राजेश खन्ना कह उठते हैं, ‘जय जय शिव शंकर काँटा लगे न कंकर…’ और मुमताज भी नशे में है। यह गीत होली के अवसर पर नहीं फ़िल्माया गया है लेकिन होली का-सा मजा देता है। हाँ, नशे में दिल की बात होली के मौके पर कहनी हो तो याद आती है, फ़िल्म, ‘सिलसिला’ (1981)। अमिताभ बच्चन और रेखा पर फ़िल्माया यह गीत मर्यादा की हदों को पार करता है। यह दृश्य एक जटिल स्थिति को दर्शाता है। अमिताब मस्ती में है, प्रेम की अपनी घुटन को नशे में खुल कर व्यक्त कर रहे हैं। रेखा शुरु में संकोच कर रही है, असहाय संजीव और जया की मनोदशा बहुत विचित्र है। उनके सामने एक नई दुनिया खुल रही है। जब तक वे कुछ समझ पाते बात हाथ से निकल चुकी होती है।
शरीफ़ पति संजीव कुमार मौके की नजाकत को देखता हुआ चुप लगाए रखता है और हीरो की पत्नी, उसके वास्तविक जीवन की संगिनी जया बच्चन के दिल की हालत से दर्शक की पूरी सहानुभूति उसके साथ है। दूसरों की भावनाओं से बेखबर नायक, ‘रंग बरसे भीजे चुनर वाली’ नायिका के सामने बिछा जा रहा है। प्रेम, दाम्पत्य, अविश्वास सब खुल कर सामने आ रहा है। होली गीतों में पारंपरिक वाद्य यंत्रों का प्रयोग हिन्दी फ़िल्मों की अन्य विशेषता है। ‘सिलसिला’ के इस गीत में भी शुरु में संजीव कुमार और अमिताभ बच्चन मस्ती में ढ़ोलक बजाते हैं, सब होली की मस्ती में सराबोर हैं, गुलाल उड़ रहा है। हरिवंश राय बच्चन द्वारा लिखा यह गीत ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता है स्थिति जटिल होती जाती है। चरित्रों के चेहरों के भाव बदलते जाते हैं। कहते हैं यह फ़िल्म रेखा-अमिताभ के वास्तविक जीवन के रिश्तों से प्रेरित है। लोकप्रियता में दूसरे सब होली गीतों से यह गीत बहुत आगे है। यश चोपड़ा ने इस गीत में मस्ती, छेड़खानी और शर्मिंदगी के सारे तत्व डाले हैं।
होली के रंग विजय आनंद ने अपनी प्रसिद्ध फ़िल्म ‘गाइड’ में भी भरे हैं। नायिका वहीदा रहमान नृत्यांगना है अत: भव्य सेट पर ‘पिया तोसे नैना लागे रे…’ गीत-नृत्य शृंखला में एक कड़ी होली गीत और नृत्य की है। गीत की कड़ी है, ‘आई होली आई सब रंग लाई बिन तेरे होली …’ नायिका अपने प्यार-उमंग का प्रदर्शन नृत्य के माध्यम से करती है। होली के रंगों की बहार यहाँ भी देखी जा सकती है। होली का त्योहार जीजा-साली, देवर-भाभी, ननद-भौजाई के बीच खेला जाने वाला पर्व है। कहावत है, होली में बाबा देवर लागे, मतलब होली ऐसा मस्ती का त्योहार है जिसमें उम्र कोई मायने नहीं रखती है, सारे रिश्ते मजाक और राग-रंग के हो जाते हैं। रंग भर कर पिचकारी किसी पर भी मारी जा सकती है। किसी को भी रंगों में डुबाया जा सकता है। होली के रंग से सराबोर रहा है, हिन्दी सिनेमा। हिन्दी फ़िल्मों के होली गीतों की यदि सूचि बनाई जाए तो पन्ने रंग जाएँगे। कुछ गीतों का मात्र नाम दे रही हूँ, ‘गीत गोविंद’ में रंग डारो श्याम मोरे…, ‘जोगन’ का रंग डारो रे रसिया…, ‘फ़ागुन’ का पिया संग खेलो होरी…, फ़ागुन आयो रे…, ‘जख्मी’ का आई आई रे होली…, ‘कोहिनूर’ का तन रंग लो…, ‘आखिर क्यों’ का सात रंग में खेल रही…, ‘बागबान’ का होली खेलें रघुबीरा अवध में…। हिन्दी फ़िल्मों में कभी बदला लेने के लिए ‘दिल में होली जल (ती) रही है’ (फ़िल्म ‘जख्मी’) तो कभी नायिका मस्ती में गाती है, ‘पिया संग खेलूँ होली फ़ागुआ आयो रे’, ‘मारो मारो भर भर पिचकारी’ (फ़िल्म ‘धनवान’), ‘बाट चलत नई चुनरी रंग डारी’ (फ़िल्म ‘लड़की’)…।
हिन्दी सिनेमा में होली गीतों के रंग-गुलाल के साथ पाठकों को होली की शुभकामनाएँ!
डॉ विजय शर्मा
लेखक एवं समीक्षक
जमशेदपुर, झारखंड