सतरंगी संस्कृति के रंग
होली की फगुनाहट हवा में घुल रही है घुलनी भी चाहिए…… साल भर बाद होली आ रही है । पर क्या इस बार भी केवल बचपन की मधुर स्मृतियों के रंगो से ही होली खेली जाएगी या यादों के झरोखों से बाहर गली में भी झाँकना ताकना होगा? क्या सिर्फ़ गुज़रे जमाने के होली की टोली और रंग भरे हौज़ में ही डुबकी लगाते रहेंगे या अपने मुहल्ले के हुड़दंग का भी जायजा लेंगे? क्या आपकी उंगलियाँ केवल व्हाट्सएप पर संदेश भेजेंगी या किसी के कोमल गालों को छू कर सुर्ख़ रंगने का इरादा है ?
ऐसे अनेक सवाल घेर रहे हैं मुझे पिछले कुछ दिनों से। संचार माध्यमों से केवल कोरोना कोरोना ही सुनती ही तो एक ख़्याल बार बार आटा है कि यह कोरोना तो अन्य वायरस की तरह कुछ दिनों में जहाँ से आया है वहाँ लौट जाएगा पर क्या इस वर्ष होली लौट कर आएगी? चीन से इस बार रंग गुलाल माँगे बिना क्या हम अपनी माटी में लोट पोट कर अपनी सतरंगी संस्कृति के रंग की पिचकारी अपने पड़ोसन पर नहीं डाल सकतें? क्या हुआ यदि कोरोना ने हाथ मिलने को मना कर दिया ?क्या हम अपने दिल नहीं जुड़ सकते ? माना कि मुँह पर मास्क लगा कर होली नहीं खेली जाती पर क्या हम अपने चेहरे से बनावटी रिश्तों की मास्क उतार कर एक दिन आत्मीय जनों के सान्निध्य में नहीं रह सकतें?
आइए इस होली हम टूटते बिखरते सामाजिक ताने बाने को एक ऐसे रंगरेज से डाई करवा लें जिस पर किसी भी राजनीतिक दल की कीचड़ के छींटें ना पड़े। इस ताने बाने को उधेड़ा ना जा सके , इस का रंग फीका ना पड़ सके , चाहे इसे नेताओं द्वारा कितना भी धोया जाए इस का गहरा लाल लहू सा रंग ,एकता का रंग , चटकीले सरसों के खेतों का रंग , हरे भरे भारत के चमन का रंग , अमन और शांति का रंग सदा उत्सव के रंग में रंगा रहे।
डॉ जूही समर्पिता
प्रचार्या डी बी एम एस कॉलेज ऑफ एजुकेशन
जमशेदपुर, झारखंड