विस्थापित
इंसानों के भीतर एक अग्नि,
जठराग्नि… बहुत तेज ताप वाली अग्नि का,
धीमे – धीमे जलना,
इसी जठराग्नि के वशीभूत हो,
उसका चलायमान हो जाना,
एक चकाचौंध भरी जादू नगरी की ओर,
पर उसकी आत्मा तो वहीं रह जाती है,
खेत के किसी कोने में,
या गली के नुक्कड़ पर।
आत्मा बहुत कम जगह छेकती है,
पर अपने जगह पर मजबूती से बनी रहती है।
इधर चकाचौंध भरी जादू नगरी में बसा शरीर,
दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद,
एक उपेक्षित से कोने में,
जो कभी बहुत बदबूदार होता है,
और कभी बहुत छोटा,
सपने देखता है एक ऐसे कोने का,
जहां उसके साथ उसकी आत्मा सह अस्तित्व में रहे।
पर यह हो नहीं पाता,
विश्व की महान शक्तियों की महत्वाकांक्षाओं के आगे,
वह बेबस और लाचार हो गया,
कोई कह रहा था,
विश्व युद्ध शुरू हो गया,
जैविक हथियार से,
जैविक हथियार..?
जैविक खेती या फिर जैविक खाद तो सुना था…!
पता नहीं चीन ने कोई हथियार बनाया,
या अमरीका ने किया है वार,
या यह सब यूंही घटित हो गया है,
जैसे घटित हो गया था इंसान।
एक ही धरती पर उगे इंसानों में कितना भेद..!
पर अब सारे भेद मिट चुकें हैं,
इंसान बुझ रहा है,
हवा के किसी अदृश्य झोंके से बुझते दीप सा,
एक दीप से दूसरा दीप जलता नहीं,
बल्कि बुझता है,
तभी वह विस्थापित अपने सपनों की गठरी सर पर उठा कर,
चल देता है उस ओर जहां छोड़ आया था अपनी आत्मा,
साथ में सब अपने हैं,
भूखे – प्यासे और अपने पैरों के सहारे,
अनवरत चला जा रहा है,
क्योंकि वह एक श्रमजीवी है,
कोई परजीवी नहीं कि एक बार गले पड़ जाये तो पड़ ही जाये।
ऋचा वर्मा
वरिष्ठ साहित्यकार
पटना, बिहार