वर दे, वीणा वादिनी वर दे !

वर दे, वीणा वादिनी वर दे !

अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः।
अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा॥
(ऋग्वेद 10/ 125)

मैं (वाग्देवी) रुद्रों (प्राणतत्त्व, एकादश रुद्र), वसुओं (पृथ्वी आदि आठ वसुओं), आदित्यों (बारह आदित्य सूर्य) तथा विश्वेदेवों (सभी देवों, सभी दिव्य विभूतियों) के रूपों में विचरण करती हूँ। मैं मित्र और वरुण (सौरतत्त्व और जलीय तत्त्व) तथा इन्द्र और अग्नि (सौरतत्त्व और अग्नितत्त्व) एवं दोनों अश्विनीकुमारों (प्राण और अपान तत्त्व) का भरण-पोषण करती हूँ।

ऋग्वेद के 10/125 सूक्त के आठ मंत्रों के ऋषि ‘वागाम्भृणी’ हैं। इन आठ मंत्रों में वाग्देवी उत्तम पुरुष में आत्मविवेचन के रूप में अपना स्वरूप प्रकट करती हैं।
इस सूक्त का महत्त्व इस बात से प्रकट होता है कि ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के भाषा-विज्ञान के प्रोफेसर सईस ने अपने ग्रन्थ ‘साइंस आफ़ लैंग्वेज’ भाग एक के प्रथम पृष्ठ पर भाषा-शास्त्रियों का ध्यान इस सूक्त की ओर आकृष्ट किया है। प्रो० सईस का कथन है कि इन आठ मंत्रों में वैदिक ऋषि का वाक्तत्त्व के विषय में जो वक्तव्य है, वह बहुत ही गम्भीर, विचारपूर्ण, भाषाविज्ञान की दृष्टि से सत्य तथा अत्याधिक दूरदर्शितापूर्ण है।

जिस तरह मनुष्य के जीवन में यौवन आता है, उसी प्रकार वसंत इस सृष्टि का यौवन है इसलिए वसंत ऋतु को सृष्टि का यौवन कहा जाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने भी गीता में स्वयं को ‘ ऋतुनाम कुसुमाकरः’ कहा है। कृष्ण यह कहकर वसंत ऋतु को ऋतुराज कह जाते हैं कि ‘ मैं ऋतुओं में वसंत हूँ’ । सरस्वती को वागीश्वरी, वाग्देवी, भगवती, शारदा, वीणावादनी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है। ये विद्या और बुद्धि प्रदाता हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की देवी भी हैं। वसंत पंचमी के दिन को इनके प्रकटोत्सव के रूप में भी मनाते हैं। ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हए कहा गया है –

‘प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु’

अर्थात् ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हममें जो आचार और मेधा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं।

 

श्रीसरस्वती देवी की व्युत्पत्ति एवं अर्थ ‘सरसः अवती’, अर्थात् एक गति में ज्ञान देने वाली अर्थात् गतिमति। पद्मपुराण में वर्णित मां सरस्वती का रूप प्रेरणादायी है। वे शुभ्र वस्त्र पहने हैं। उनके चार हाथ हैं, जिनमें वीणा, पुस्तक और अक्षरमाला है। उनका वाहन हंस है। शुभ्रवस्त्र हमें प्रेरणा देते हैं कि हम अपने भीतर सत्य अहिंसा, क्षमा, सहनशीलता, करुणा, प्रेम व परोपकार आदि सद्गुणों को बढाएं और काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, अहंकार आदि दुर्गुणों से स्वयं को बचाएं। चार हाथ हमारे मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार रूपी अंत:करण चतुष्ट्य का प्रतीक हैं। पुस्तक ज्ञान का प्रतीक है, अक्षरमाला हमें अध्यात्म की ओर प्रेरित करती है। दो हाथों में वीणा हमें ललित कलाओं में प्रवीण होने की प्रेरणा देती है। जिस प्रकार वीणा के सभी तारों में सामंजस्य होने से लयबद्ध संगीत निकलता है, उसी प्रकार मनुष्य अपने जीवन में मन व बुद्धि का सही तारतम्य रखे, तो सुख, शांति, समृद्धि व अनेक उपलब्धियां प्राप्त कर सकता है। श्रीसरस्वती माता का वाहन हंस विवेक का परिचायक है। विवेक के द्वारा ही अच्छाई-बुराई में अंतर करके अच्छाई ग्रहण की जा सकती है। मां सरस्वती विद्या, बुद्धि, ज्ञान व विवेक की अधिष्ठात्री देवी हैं। उनसे हम विवेक व बुद्धि प्रखर होने, वाणी मधुर व मुखर होने और ज्ञान साधना में उत्तरोत्तर वृद्धि होने की कामना करते हैं। पुराणों के अनुसार, वसंत पंचमी के दिन ब्रह्माजी के मुख से मां सरस्वती का प्राकट्य हुआ था और जड़-चेतन को वाणी मिली थी। इसीलिए वसंत पंचमी को विद्या जयंती भी कहा जाता है और इस दिन श्रीसरस्वती पूजा का विधान है।

ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार वसंत के अग्रदूत श्रीकृष्ण ने सर्वप्रथम सरस्वती पूजन किया था और उन्हें वरदान दिया था कि वसंत पंचमी के दिन तुम्हारी भी आराधना की जायेगी। इस वरदान के फलस्वरूप वसंत पंचमी के दिन विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की पूजा होने लगी जो कि आज तक जारी है। देश के कई हिस्सों में इस दिन बच्चे को प्रथमाक्षर यानी पहला शब्द लिखना सिखाया जाता है।

आदौ सरस्वती पूजा श्रीकृष्णेन् विनिर्मित:,
यत्प्रसादान्मुति श्रेष्ठो मूर्खो भवति पण्डित:।

जैन मतावलम्बी भी इनकी उपासना करते हैं। बौद्ध धर्म ने भी सरस्वती पूजन की मान्यता प्रदान की है। बौद्ध ग्रन्थ साधनमाला के अनुसार सरस्वती अपने भक्तों को ज्ञान और समृद्धि देती है। तिब्बत में सरस्वती को महासरस्वती, वज्रशारदा और वज्रसरस्वती आदि रूपों में देखा जाता है। तिब्बतवासी इन्हें वीणा सरस्वती के रूप में मानते हैं।

वैष्णव धर्मावलंबी वसंत पंचमी को श्रीपंचमी के रूप में मनाते हैं। मान्यता है कि सर्वप्रथम इसी दिन राधा-कृष्ण का मिलन हुआ था। आज भी इस दिन वृंदावन के श्रीराधा श्यामसुंदर मंदिर में राधा-कृष्ण महोत्सव का भव्य आयोजन होता है। कुछ अन्य पौराणिक मान्यताएं वसंत पंचमी पर रति-काम पूजन की बात भी कहती हैं। वसन्त पंचमी के दिन वसन्तावतार नामक ऋतु उत्सव मनाया जाता था। भोज ने अपने ग्रन्थ ‘सरस्वती कण्ठाभरण’ में इस उत्सव का बड़ा ही सुन्दर ढंग से चित्रांकन किया है। कालिदास ने ‘ऋतु संहार’ में प्रकृति और मानव सौंदर्य के अनेक पहलुओं का वर्णन किया है। ‘रत्नावली’ में इसका “वसंतोत्सव एवं मदनोत्सव” दोनों नामों से उल्लेख हुआ है। महाकवि भवभूति के ‘मालती माधव’ में वसंतोत्सव का शांत सुन्दर चित्र प्रस्तुत किया गया है।

 

हमारे वसंत पर्व का शुभारम्भ बसंत पंचमी से होता है और होलिकोत्सव पर उल्लास की चरम परिणति के साथ वंसतोत्सव का आनन्द परिपूर्ण होता है। चूंकि वसंत ऋतु का मौसम अपने आप में एक अजब-सी खुमारी लिए होता है। इस अवधि में मन में काम भाव प्रेम की उमंगें जागृत होती हैं। नयी आशाओं एवं कामनाओं का जन्म होता है। ऐसे कामोद्दीपक काल में हमारे मनों में उमड़ती भावनाएं अनियंत्रित-उच्श्रृंखल न हों, उन पर विवेक का अंकुश लगा रहे, सम्भवत: इसलिए हमारे मनीषियों ने इस पर्व पर ज्ञान व विवेक की देवी मां सरस्वती की आराधना का विधान बनाया।

अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः।
यं कामये तं तमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषि तं सुमेधाम्॥

मैं स्वयं यह कहती हैं कि देवता और मनुष्य सभी मेरी उपासना करते हैं, मेरा आश्रय लेते हैं। जिस पर मेरी दया-दृष्टि होती है, उसको मैं उग्र (तेजस्वी) बना देती हूँ। उसको ब्रह्म(ब्रह्मवेत्ता, आत्मतत्त्वज्ञ) बना देती हूँ। उसको ऋषि और मेधावी बना देती हूँ।

प्राचीनकाल से आज तक वसंत का यही तत्वदर्शन भारत की देवभूमि को अपनी भावधारा से आबाध रूप से सिंचित करता आ रहा है। सरस्वती एक ओर जहां विलुप्त नदी के रूप में जन संस्कृति का प्रतीक है तो दूसरी ओर हमारी देवभूमि की सांस्कृतिक चेतना के विकास का भी। ज्ञान-ध्यान, संयम व विवेक के साथ सरस्वती पूजन का यह पर्व कला संस्कृति के रूप में जनमानस की आध्यात्मिक जिज्ञासा की प्यास तो बुझाता ही है, हर्षोल्लास के साथ मन की कोमल भावनाओं को भी तरंगित करता है।

अम्बितमे नदीतमे देवितमे सरस्वती।
अप्रशास्ता इव स्मसि प्रशस्तिमम्ब न स्कृधि।।

हे नदियों में श्रेष्ठ, देवियों में अग्रणी पुज्यतमा माँ हम पर ऐसी कृपा करो कि हम भाग्यशाली हो जायें।

माँ शारदे सबों को सद्बुद्धि एवं सन्मति प्रदान करें…………

 

डॉ नीरज कृष्ण
साहित्यकार
पटना, बिहार

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