वतन से दूर

वतन से दूर

वतन से दूर हूँ लेकिन
अभी धड़कन वहीं बसती…
वो जो तस्वीर है मन में
निगाहों से नहीं हटती…

बसी है अब भी साँसों में
वो सौंधी गंध धरती की
मैं जन्मूँ सिर्फ भारत में
दुआ रब से यही करती…

बड़े ही वीर थे वो जन
जिन्होंने झूल फाँसी पर
दिला दी हमको आजादी
नमन शत-शत उन्हें करती…

मेरा प्यारा देश

फूलों जैसा मेरा देश मुरझाने लगा…
शत्रुओं के पंजों में जकड़ा जाने लगा…
रात-दिन मेरी आँखों में एक ही ख़्वाब…
कैसे हो मेरा ‘प्यारा देश’ आजाद
कैसे छुड़ाऊँ इन जंजीरों की पकड़ से इसको…
कैसे लौटाऊँ वापस वही मुस्कान इसको…
कैसे रोकूँ आँसुओं के सैलाब को इसके…
कैसे खोलूँ आज़ादी के द्वार को इसके…
कैसे करूँ कम आत्मा की तड़प रूह की बेचैनी को…
चढ़ जाऊँ फाँसी मगर दिलाऊँगा आजादी इसको
ये जन्म कम है तो, अगले जन्म में आऊँगा
पर देश को मुक्ति जरूर दिलाऊँगा…
जो सोचा था कर दिखलाया…
भले ही उसको फाँसीं चढ़वाया…
शहीद भगत सिंह नाम कमाया…
आज भी सबके दिल में समाया।

डॉ भावना कुँअर
साहित्यकार एवं शिक्षिका
सिडनी, आस्ट्रेलिया

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