यू आर माई वेलेंटाइन…..

यू आर माई वेलेंटाइन…..

चाय के कप के साथ रखे अखबार पर छपी तारीख और फेसबुक ने याद दिलाया आज का दिन।
चाय कड़क और मीठी लगने लगी,
एक तमन्ना मन ही मन भाप सी ऊपर उठने लगी।
‘सुनिये जरा…’ पुकारा हमने।
‘क्या है जी… बच्चों को दूध-चाय देना है।
नाश्ते की भी तैयारी करना है।
‘कुछ चाहिए क्या…’
‘आओ तो कहूँ…’
‘बोलो अब। बहुत काम पड़ा है।’
‘काम का क्या है। वो तो कभी खत्म नहीं होगा। बैठो जरा। अच्छा याद करो वो अपनी मँगनी के बाद मैंने तुम्हें एक बार जन्मदिन पर कार्ड भेजा था। चिट्ठी भी लिखी थी शायद… वो है तुम्हारे पास।’
‘हे भगवान! गिनना तो साल… काग़ज़ पर लिखी थी, ताम्रपत्र या शिलालेख नहीं था जो युगों बाद भी खुदाई में मिले। इतने ट्रांसफर और शहर, कितनी बार सामान पैक होकर खुला। पता नहीं कहाँ रखा गये होंगे….. मगर आज उनकी जरूरत क्यों आन पड़ी।’
‘अरे आज वो है। अरे वही वेलेंटाइन डे…. सभी लोग अपने वेलेंटाइन को जता रहे हैं कि बस वही है और कोई नहीं है उसके सिवा। मैं भी सोच रहा था उन चिट्ठियों को चेंप कर अपनी फोटो पोस्ट करूँ।’
वो हँसे जा रही है। आप भी…. अब इस उम्र में यह सब करने की जरूरत क्या है। मैं जानती हूँ कोई नहीं है आपकी वेलेंटाइन मेरे अलावा।

 


हम सोच रहे हैं, कह तो रही है सच फिर भी, कह देने से वारंटी एक्सटेंड होती रहती है, प्यार की के. वाय. सी. टाइप।
लगता है फोकट में काम नहीं बनने वाला। कुछ फूल-वूल या श्रृंगार का सामान उपहार बनाकर देना होगा।
जब से रितेश जी की पोस्ट पढ़ी है, अरे अपने आर के जैनँ जी की, मन में खटका सा है। यह फोटो चेंपने के पीछे आखिर है क्या… बस प्यार या कोई डर…..
खैर जो भी हो। डर के आगे भी जीत है। वैसे भी डर बिन प्रीत नहीं होती। इस उम्र में तो वैसे भी प्यार व डर का मिश्रित स्वरूप ही नज़र आता है। तो यह है अथ वेलेंटाइन कथा। बोलिये वेलेंटाइन महाराज की जय। हमारे वेलेंटाइन की डबल जय। सदा विजय।

मुकेश दुबे
साहित्यकार

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