मैं ख़ुद ही हूँ एक गुलाब
प्रतीक्षा तो थी
मिलेगा मुझे भी गुलाब
मन मसोस कर रह गयी
जब बिन कुछ कहे चले गए वो,
मायूस हो जा खड़ी हुई
आईने के सामने
क्या सचमुच उम्र हो चली अब ?
क्या नहीं हक़ एक गुलाब का भी ?
तभी आई अंतस से आवाज़
न हो उदास,
फिर क्या था
बदल डाली पोशाक
लगा आँखों में कजरा
होठों पर लाली
बालों में गजरा,
तिरछी नज़र से
मोहक मुस्कान से
ले डाली एक सेल्फी
और ख़ुद को देख
हो गया दिल बाग-बाग
मार सीटी, कह बैठी
क्या हुआ जो नहीं मिला गुलाब
मैं तो खुद ही हूँ एक गुलाब
हाँ, मैं तो खुद ही हूँ एक गुलाब।
नीरजा मेहता ‘कमलिनी’