महामारी में भी ओछी राजनीति

महामारी में भी ओछी राजनीति

एक बड़े शायर का शेर है
लू भी चलती थी तो बादे-शबा कहते थे,
पांव फैलाये अंधेरो को दिया कहते थे।
उनका अंजाम तुझे याद नही है शायद,
और भी लोग थे जो खुद को खुदा कहते थे।।

महाभारत काल में अखंड भारत के मुख्यत: 16 महाजनपदों कुरु, पंचाल, शूरसेन, वत्स, कोशल, मल्ल, काशी, अंग, मगध, वृज्जि, चे‍दि, मत्स्य, अश्मक, अवंति, गांधार और कंबोज को छोड़कर भी लोग विदेशों में जाकर बस्ते थे, ये अलग बात है कि इस समय मेले ह्य और यवन को ही विदेश माना जाता था और उसमे भी ज्यादा भारत के लोग बस्ते थे! इसके बाद भी उनकी आपसी सोच सराहनीय रही! सवाल ये नहीं कि उनमे युद्ध हुआ, ब्लकि सराहनीय बात है कि युद्ध के बाद आपसी मर्यादा को कायम रख जाता था! और अगर कोई सूर्यास्त के बाद का दृश्य देखता तो शायद पता चलना भी मुश्किल होता था कि कौन पक्ष में और कौन विपक्ष में है!
जिस महाभारत को हम भयानक कहते हैं तो कहते समय आज की स्थिति भूल जाते हैं!

ओशो कहा करते थे कि राजनीतिक और कुत्ते उनके यहा ना जाये! बदलते समय ने राजनीतिक परिभाषा बदल दी है! राजनेता उसी को बनाया जाता था सबसे कुशल आदमी हो और जो निजी महत्वाकांक्षाओं को छोड़कर देशहित में काम करे! राम राज्य की संकल्पना राजा को सन्यासी कहा गया है! जिस दिन से शासक बनता है उसी दिन से वह दूसरों के बारे में सोचना शुरू कर देता है!आज राजधर्म को महत्व नहीं दिया जा रहा है! यहां तक कि तथा कथित सन्यासी भी चुनाव लड़ते हैं!
महत्त्वाकांक्षा इतनी प्रगाढ़ ही वो खराब से खराब स्थित मे भी राजनीतिक रोटी सेंकने मे पीछे नहीं रहते हैं! हालत इस तरह खराब है कि राष्ट्रीय आपदा, महामारी मे उन्हें इस बात की समझ नहीं की राजनीति तो बाद में भी की जा सकती है पहले देश जरूरी है! देश रहेगा तो राजनीति होती रहेगी! एक ही देश में रहकर इतनी वैचारिक मतभेद कैसे हो सकता है कि राष्ट्रीय आपदा मे भी नीच मानसिकता दिखाई देती है है! ऐसे अनेक लिखित प्रमाण है जिससे हम कह सकते हैं कि महाभारत होने के बाद भी उस समय राजनीति बहोत उच्च थी!

सच तो यह है कि दुनिया भर में राजनीति सिर्फ बचकाने लोगों को आकर्षित करती है। यह अल्बर्ट आइस्टींन, बर्टेंड रसल, जॉन पॉल सार्त्र, रवीन्द्रनाथ टैगोर को आकर्षित नहीं करती…नहीं, यह एक तरह के लोगों को आकर्षित करती है। मनोवैज्ञानिक इस बात को जानते हैं कि जो लोग हीनता की ग्रँथि से ग्रसित हैं वे लोग राजनीति की तरफ आकर्षित होते हैं, क्योंकि राजनीति उन्हें शक्ति दे सकती है। और शक्ति के द्वारा वे स्वयं को और दूसरों के सामने सिद्ध कर सकते हैं कि वे क्षुद्र नहीं हैं, कि वे औसत दर्जे के नहीं हैं।

फ्राइमर और स्किटका ने दो राजनीतिक विचारों के पैमाने पर आज के सियासी माहौल को परखा. पहला था, ‘मॉन्टेग्यू सिद्धांत’. ये सिद्धांत 18वीं सदी की सामंतवादी अंग्रेज़ मैरी वॉर्टले मॉन्टेग्यू के विचार पर आधारित है. मैरी का कहना था कि, ‘विनम्रता से आप को बिना कुछ भी ख़र्च किए सब कुछ हासिल हो सकता है! यानी मैरी मॉन्टेग्यू का ये मानना था कि राजनीति में बेअदबी की आप को भारी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है. इसका बहुत नुक़सान होता है.! फ्राइमर और स्किटका ने इस सिद्धांत की जगह ‘रेड मीट सिद्धांत’ पेश किया. इस सिद्धांत के मुताबिक़ आप विरोधी का अपमान कर के अपने समर्थकों के सामने मांस के टुकड़े फेंकते हैं.इस विचार के मुताबिक़ जब कोई राजनेता अपने विरोधी पर अमर्यादित टिप्पणी करता है, तो, उसका मतलब ये होता है कि वो बोलने वाले नेता को ईमानदार मानता है. उसके बयानों को वाजिब निंदा समझता है. ये मानता है कि ऐसा बोलने वाले दिल से बोलते हैं।

सत्ता जिसके पास है, वह दिखाई पड़ता है पूरे मुल्क, और जाने-अनजाने हम उसकी नकल करना शुरू कर देते हैं। सत्ता की नकल होती है, क्योंकि लगता है कि सत्ता वाला आदमी ठीक होगा। अंग्रेज हिंदुस्तान में सत्ता में थे, तो हमने उनके कपड़े पहनने शुरू किए। वह सत्ता की नकल थी। वे कपड़े भी गौरवपूर्ण, प्रतिष्ठापूर्ण मालूम पड़े।

अगर अंग्रेज सत्ता में न होते और चीनी सत्ता में होते तो मैं कल्पना नहीं कर सकता कि हमने चीनियों की नकल न की होती। हमने चीनियों के कपड़े पहने होते। सत्ता में अंग्रेज था, तो उसकी भाषा हमें ज्यादा गौरवपूर्ण मालूम होने लगी। सत्ता के साथ सब चीजें नकल होनी शुरू हो जाती हैं। सत्ताधिकारी जो करता है, वह सारा मुल्क करने लगता है।

राजनीति जितनी स्वस्थ हो, जीवन के सारे पहलू उतने ही स्वस्थ हो सकते हैं। क्योंकि राजनीति के पास सबसे बड़ी ताकत है। ताकत अशुभ हो जाए तो फिर कमजोरों को अशुभ होने से नहीं रोका जा सकता है। मैं मानता हूँ कि राजनीति में जो अशुद्धता है, उसने जीवन के सब पहलुओं को अशुद्ध किया है।

अनुराग पाठक
उत्तर प्रदेश

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