मजदूर
जिसके सर पर छत है खुले आकाश का,होता रहता वज्रपात,
फिर भी वह आत्मविश्वास से लबरेज है , वह है मजदूर।
कंधों पर सपनों का बोझ ढो रहा, चला जा रहा मंजिल है दूर,
अपने पसीने से भूमि सींचता,है श्रम से थक कर है वह चूर।
अपने हथौड़े से करता एक-एक प्रहार,रखता जाता एक- एक ईंट,
अपने श्रम से लोगों की इच्छाओं के महल निर्माण करने में मशगूल।
है पसीने से लथपथ,करता जा रहा मेहनत भर दोपहर,
काम करने में है वो तल्लीन,बच्चा रो रहा है कहीं दूर।
खून पसीना बहा कर भी वह पाता नहीं मजदूरी भरपूर,
खून चूसते मिल मालिक बनाने में अपने महल मशगूल।
खा गये उसके यौवन;जीवन क्षुधा,चिंता,दीनता,क्लेश से भरपूर,
फिर भी उसके जीवन में सुख-दुख का बजता संगीत, नहीं वह मजबूर।
वह गुलाम नहीं किसी का,फैलाता नहीं हाथ,अपने दम पर जीता है,
चला जा रहा अपने श्रम पथ पर वो कोई नहीं वो है मजदूर।
जीवन में सफलता का कण नहीं, उसकी मंजिल है दूर,
फिर भी चेहरे पर है आत्मसंतुष्टी और श्रम स्वेद का नूर।
थक कर लौटा सांझ को वो अपने घर बांधे प्रीती भरपूर,
बच्चे उससे लिपट जाते, गृहस्वामिनी भी खड़ी कर जोड़।
दिन भर की थकान मिटती उन्मुक्त हँसी में भूले मिल की खड़-खड़,
अपने परिवार के संग हँसते-खेलते जीवन जीते भरपूर।
अनिता निधि
साहित्यकार
जमशेदपुर,झारखंड