नर का पौरुष

नर का पौरुष

जब-जब संकट ने जाल बुना
नर ने पौरुष का वार चुना
यूँ शैय्या पर जीकर क्या हो
उसने मृत्यु अधिकार चुना

विद्युत सम तलवार लिये
तड़ितों को अपने तुनीर धरे
लगा गाँठ जनेऊ में
भरकर भीषण हुंकार चला

कितने रत्नाकर लाँघ दिए
अगणित सेतु भी बाँध दिए
माँ के वचनों की रक्षा को
अग्नि में कुंदन लाल जला

न विषधर की ही चिंता की
न सिंहों का सिंहनाद सुना
जब राह रुकी पर्वत कुचला
वो वेग पवन का बाँध चला

ले अक्षय आशीष पितरों का
और साहस का अधिकार चला
देखी संकट ने जब ऊष्मा
हा-हा करता चीत्कार जला

डॉ नीरज कृष्ण
साहित्यकार
पटना, बिहार

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