दोगले इंसान
सहमी खड़ी है इंसानियत
कौन मसीहा कौन हैवान !
सोच-समझ चली चालों को
फिर दे देते हादसों का नाम !
पूज कर कन्या रस्म निभाते
नज़रों में छुपा रखते शैतान !
ओढ़ मुखौटा धर्म-कर्म-कांड
पूजते अल्लाह औ भगवान !
पत्थरों में दिखता जिनको ईश्
जीवों की पीड़ा से वो अनजान !
पढ़ न सके जो किसी की वेदना
पढ़ गीता-कुरान बन रहे महान !
अपने बुजुर्गों को दिया न मान
सभा में वही सब झाड़ रहे ज्ञान !
दहेज़ के लिए जला दिया बहू को
नवरात्री में कर रहे देवी का सम्मान !
मुखौटों की अदला-बदली करते
थक भी नहीं रहे ये दोगले इंसान !
प्रवीन मलिक
साहित्यकार
चंडीगढ़