खोमचे वाली
अपेक्षाकृत साफ सुथरे चेन्नई स्टेशन पर खड़ी लोकल ट्रेन की महिला बॉगी में फैले गजरों के फूलों और दक्षिण भारतीय व्यंजनों की मिली- जुली सुगंध ने मानो दो घंटो की एक सुखद यात्रा की भूमिका सी लिख दी थी। परंतु यह स्थिति ज्यादा देर तक नहीं रही। धीरे – धीरे डब्बे में भीड़ बढ़ने लगी, इतनी कि सामने वाली सीट पर बैठी महिला और उसके बच्चे की मुस्कुराहट का जवाब देना तक संभव नहीं रहा, वह खोमचे वाली जो बीच में आकार खड़ी हो गई थी।
उस ठेलमठेल भीड़ और दो घंटे के सफर में कई बार लगा कि वह मेरे ऊपर गिर ही जायेगी। खैर जैसे – तैसे रास्ता कटा और मेरा वाला स्टेशन आ गया, अपनी सीट से सामान के साथ गेट तक पहुंचने में अच्छा – खासा संघर्ष करना पड़ा।
“लो महारानी यहां भी खड़ीं हैं”, खोमचे वाली मुझसे पहले गेट तक पहुंच गई थी, मेरी झुंझलाहट को दुगुना करने के लिए शायद।
लेकिन मेरे गेट तक पहुंचते-पहुंचते वह प्लेटफार्म पर उतर चुकी थी।
“लाईए दीदी, अपना सामान पकड़ाईए”,
सामान को लिए – लिए उतरने में होने वाली मेरी कठिनाई को उसने भांप लिया था। प्लेटफार्म पर उतरते – उतरते मेरे अंदर की सारी झुंझलाहट तिरोहित हो चुकी थी और हम दोनों एक साथ मुस्कुरा पड़े।
“ले लो भई चेन्नई के समोसे ले लो”
एक समोसे वाला आवाज लगाते हुए हमारे पास से गुजरा।
“चेन्नई नहीं भारत के समोसे”, खोमचे वाली ने धीरे से हंसते हुए कहा, मेरी नजर उसके चेहरे पर गई, अचानक मुझे उसकी हंसी में माधुर्य, उसके चेहरे पर लावण्य और आंखों में अखंड भारत की तस्वीर यह सब एक साथ नजर आने लगा जी में आया उसे गले लगा लूं, और अगले ही क्षण हम दोनों गले मिल रहे थे।
ऋचा वर्मा
साहित्यकार
पटना, बिहार