खिडक़ी से धूप

खिडक़ी से धूप

जीवन हार्टबीट की तरह है, जब तक उतार चढ़ाव न हो सार्थकता नही रहती। भावनाओं को आकार देना स्कूली जीवन से ही हो गया था। लिखने से ज्यादा पढ़ने के शौक ने जुगसलाई सेवा सदन पुस्तकालय से बाधें रखा ।
मेरी कविता यूं ही गुमनामी के अंधेरों मे गुम हो गई होती अगर कॉलेज के दिनों मे बच्चन पाठक सलिल सर से इतेफाकन मुलाकात न हुई होती।उनके प्रोत्साहन से ही उस समय दर्जनों अखबार और लगभग पांच छह बार युवावाणी मे मेरी रचना को स्थान मिला।आजीवन सर की आभारी रहूंगी।
शादी के बाद प्रोग्राम देने का सिलसिला जरुर छूट गया लेकिन मनोभावों को कविता के रूप में व्यक्त करने का नहीं। जिन्दगी मे एक समय ऐसा भी आया जब गहरी अवसाद से गुजर रही थी, इस अवसाद से डॉक्टर के बाहर निकलने की सलाह पर और मेरे पति की कोशिशों पर मेरी कविता ने नया आकार लेना शुरू कर दिया।

 


कम समय में ही कई वरिष्ठ साहित्यकारों के सन्निग्ध व प्रोत्साहन से अपने को सौभाग्यशाली समझने लगी हूँ।
जहाँ जाने की कभी कल्पना भी नही कर सकतीं उस मंच पर निमंत्रित होना सपने जैसा ही है।

संवेदना जब आहत होकर हृदय पर प्रहार करता है तब रचना अनायास ही बनती जाती है।
कुछ ठेस तो लगे,
मन लहुलूहान तो हो,
तार-तार पोर-पोर झंकृत तो हो,
कर सकूं नई रचनाओं का निर्माण फिर।

कभी-कभी पक्षियों का उन्मुक्त होना भी खलता है।
झुडं के झुडं आपसी कलरव में,
नीले अम्बर के बीच,
एकता समाहित है।
वह मनुष्य की तरह बुद्धि से परिपूर्ण नही है।
वह रिश्तों के मूल्यों को जानता नही पहचानता नही,
वह विश्वासघाती नही मानव की तरह,
क्यों कि उनमें एकता समाहित है।

मेरी रचनायें मंजे हुए साहित्यकारों की तरह न होकर सहज और सरल दैनिक दिनचर्या की हिस्सा मात्र होती है।

मैं न सीखूं स्कूटी कार पिया,
तेरे साथ ही और पीछे बैठूं हर बार पिया।
लाख अदावत करो या शिकायत तुम,
मनुहार की चाशनी घुलेगी हर बार पिया।

 

गंभीर साहित्यिक बैठक में निमंत्रित करना और समीक्षकों द्वारा रचना पसंद किये जाने पर निश्चिंत आत्मविश्वास बढ़ता जा रहा है।

काजल सिर्फ आंखों की शोभा नहीं,
न सूनेपन को छुपाने का जरिया मात्र,
जानती है स्त्री अंधेरों का भी साथ देना।

शुरुआत में कुछ व्यंग्य रचनायें भी लिखी थी।

आओ दोस्तों नया इतिहास रचेंगे,
दहेज लेने और देने में पीछे न हटेंगे।

रास्तें कितनी भी पथरीली क्यों न हो पैर अभ्यस्त होने लगती है, मंजिल तक वो जद्दोजहद करती रहती है।

अंधेरों से लाख डराओ क्यों न,
थपेड़ों से बार-बार घायल कर जाओ।
भगजोगनी बन नजर आ ही जाउंगी।

बागबेड़ा से बिस्टुपुर स्कूल कॉलेज आने जाने के क्रम में, जुगसलाई में बिजली के खंभों पर पक्षियों का कतारबद्ध बैठे हुए देखने से पैर बरबस ठहर जाता।सेल्फी का जमाना रहता तो कैमरे में कैद कर लेती।बस खड़े हो कर उसे एकटक निहारा करती।कई सहेलियाँ उपहास भी उड़ाती , अब भी याद दिलाती हैं कि उन्हें जाने की कह कर मैं अकेले आ जाउंगी उस वक्त उनलोगों को लगता मुझे कुछ दिमागी परेशानी हैं ।अतः सब कुछ दूरी पर इंतजार करती और लेकर ही जाती।

 


मेरी सहेलियाँ द्वारा हमेशा जीवन और लेखन में सहयोग मिलता रहा।सर द्वारा ऐड्रेस दिये जाने के बावजूद खराब राइटिंग के कारण झिझक रही थी उन लोगों की जिद्द और सहयोग से हर जगह रचना भेज सकी।उन लोगों की सलाह ही थी कि फेसबुक पर अपनी रचनायें पोस्ट करने लगी।
जीवन में दो बहुमूल्य यादें है पहली बार रेडियो पर अपनी आवाज सुनना और दूसरी बार अपनी दूसरी बेटी को गोद में लेना।
गर्भावस्था में कुछ गंभीर परेशानी के कारण दो महीने अस्पताल में रही ।डॉक्टर लगभग न कह चुके थे समय से पहले ऑपरेशन द्वारा स्वास्थ्य बच्ची को रोता देख सुखद धरोहर के रूप में अंकित है।आज वो मेरे लिए सबसे बड़ी ताकत है।आज बच्चों और पति के सहयोग से ही धीरे धीरे ही सही अपने सपने को साकार करने की कोशिश कर रही हूँ । मायके व ससुराल में साहित्यिक रुचि न रहने के बावजूद किसी तरह की पाबंदी नहीं है शायद इसी वजह से साहित्यिक कार्यक्रम व गोष्ठियों का हिस्सा बन रही हूँ।तुलसी भवन में संचालन का मौका दिया गया व सम्मानित भी किया गया। अब साहित्यिक मंचों के अलावे अन्य जगहों से निमंत्रित व सम्मानित होती हूँ।शायद इसका बहुत बड़ा श्रेय फेसबुक व वाट्सएप को भी जाता है जिसके कारण मेरी रचना को पंसद व प्रोत्साहित किया जाता है। जूही दीदी व सहयोग के सदस्यों के प्रोत्साहन से मेरी लेखनी धीरे धीरे ही सही अनवरत चलती रहेंगी।

सरिता सिंह
साहित्यकार
जमशेदपुर

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